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सूत्रसंवेदना-३
अनुज्ञापनस्थान के शब्द बोलते एवं सुनते हुए सोचना चाहिए
“रागियों के नजदीक जाकर, रागी पात्रों को स्पर्श करके राग को बढ़ाने का काम तो मैं अनंतकाल से करता आया हूं, परन्तु आज मेरा पुण्योदय हुआ है कि वैरागी गुरु भगवंत को स्पर्श कर अपने राग को तोड़ने का मुझे सुनहरा मौका मिला है । मैं आज धन्य बना हूँ ।”
३.अव्याबाथपृच्छा स्थान:
गुरुवंदन करने के बाद उनकी साधना आदि के बारे में जानने का इच्छुक साधक उस संबंधी प्रश्न करता है :
अप्पकिलंताणं बहुसुभेण भे दिवसो वइक्वंतो ? - अल्प क्लेशवाले हे भगवंत ! आप का दिन बहुत सुखपूर्वक बीता ?
गुरु के संयमपूत शरीर को स्पर्श करते हुए गुरुवंदन करके आनंदित हुआ शिष्य, गुरु को सुखशाता की पृच्छा करते हुए कहता है, “हे भगवंत ! आप रति-अरतिरूपी क्लेश के भावों से तो पर हो गए हैं क्योंकि बाह्य वस्तुओं का सद्भाव अभाव या दुरभाव आप को व्याकुल नहीं कर सकता, अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति आप को व्यग्र नहीं कर सकती, सत्कार या सन्मान आप के लिए अहंकार जनक नहीं बन सकता, अपमान या तिरस्कार आपको दीन-हीन नहीं बना सकता । इसलिए आपका अंतरंग मन तो पीड़ामुक्त ही होगा, परन्तु कर्माधीन इस काया में पीडा की संभावना है । इसलिए आप के प्रति सद्भावना के कारण पूछता हूँ कि, आपका दिन सुखपूर्वक बीता है ना ?" यह सुनकर गुरु उत्तर देते हुए कहते हैं -
तहत्ति] - 'तुम कहते हो वैसा ही है' अर्थात् मेरा दिन सुखपूर्वक बीता है। गुरुभगवंत संयमजीवन की सभी क्रियाओं द्वारा आत्मभाव को विकसित करने के लिए सतत प्रयत्नशील रहते हैं । इस कारण वे सदा चित्त से स्वस्थ होते हैं एवं आत्मिक आनंद का अनुभव करते हैं । ऐसे गुरु शिष्य से कहते