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सुगुरु वंदन सूत्र . ११९ यहाँ वंदना के तीन आवर्त निष्पन्न होते हैं । । 'संफासं' पद रजोहरण या चरवले के उपर की हुई गुरु चरण की स्थापना उपर दो सीधे हाथ रखकर, दोनों हाथ की हथेली पर मस्तक रखकर, शीर्षनमन करते हुए बोलता है। यहाँ पहला शिरोनमन होता है ।
यह पद बोलते हुए, जिनका एक एक आत्म प्रदेश क्षमादि गुणों से भरा हुआ है, वैसे गुरु के चरणों का शिष्य स्पर्श करता है । इस स्पर्श से शिष्य के हरेक रौंगटे में आनंद की एक लहर फैली जाती है। अपनी आत्मा में कोई नई ही चेतना के संचार का अनुभव होता है । मानो गुरु की साधना से पावन बनी चेतना खुद की आत्मा के प्रत्येक प्रदेश को पावन कर रही हो । इस प्रकार गुरु चरण का स्पर्श करते हुए शिष्य अत्यंत आनंद विभोर बन जाता है । ऐसा होते हुए भी गुरु के प्रति प्रशस्त राग होने से वह विवेक नहीं छोड़ता ।
विवेकपूर्वक जोड़े हुए दोनों हाथ ललाट पर लगाकर वह नम्रतापूर्वक कहता है - __ खमणिजो भे ! किलामो - अर्थात् मैंने आप के चरणों का स्पर्श किया उससे
आप के मन में कोई ग्लानि हुई हो या शरीर को कोई तकलीफ पहुंची हो तो मुझे क्षमा करें !
मेरे कारण गुरु के तन मन को लेश मात्र भी पीड़ा न हो, वैसी भावना शिष्य के मन में अवश्य रहती है, पर अब गुरु की पवित्र काया का स्पर्श करना, शिष्य को अपने शुभ भाव की वृद्धि का उपाय लग रहा है । इसलिए शिष्य साधना से पवित्र बनी हुई गुरु की काया को स्पर्श तो करता है, परन्तु अपने कठोर हाथ के स्पर्श से शायद गुरु को ग्लानि हुई होगी ऐसी संभावना से विवेकी शिष्य को दुःख भी होता है । इसलिए दुःखार्द्र हृदय से वह कहता है, ‘भगवंत ! मेरा यह अपराध है, इसके लिए मुझे क्षमा कीजिए ।'
कायिक खेद के परिहार के लिए जो शिष्य इतना यत्न करता हो वह शिष्य गुरु के मन को थोड़ा भी खेद न हो, उसके लिए गुर्वाज्ञापालन में कितना तत्पर रहता होगा उसका थोड़ा सा ख्याल इस पद द्वारा आ सकता है ।