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सूत्रसंवेदना-३
अनुज्ञापन स्थान के इन पदों के उच्चारण के समय मन में ऐसा भाव जगना चाहिए कि गुरु मेरे समक्ष ही हैं एवं मैं उनको विनम्र भाव से बिनती करता हूँ कि 'हे भगवंत ! कृपा करके मेरी वंदन की भावना को सार्थक करने के लिए अपने समीप आने की मुझे अनुज्ञा दें ।' गुरु की अनुज्ञा मिलते ही शिष्य भी गुणवान गुरु भगवंत की किसी भी प्रकार की आशातना न हो उस भाव से 'निसीहि' बोलकर गुरु के नजदीक जाता है एवं भावपूर्ण हृदय से गुरु वंदना के लिए तत्पर बनता है ।
निसीहिपूर्वक मित अवग्रह में प्रवेश करके, यथाजात मुद्रा में अर्थात् जन्म समय बालक की जैसी मुद्रा होती है, वैसी मुद्रा में, गुरु के सामने बैठकर, गुरु के प्रति अपने अन्तःकरण में स्थित अहोभाव की वृद्धि करने के लिए शिष्य कहता है
अहोकायं कायसंफासं खमणिज्जो भे ! किलामो - हे भगवंत ! अधः कायरूप आप के चरणों को मेरी काया द्वारा स्पर्श करता हूँ । वैसा करते हुए आपको कोई तकलीफ हो तो कृपा करके मुझे क्षमा कीजिए ।
ये शब्द बोलते हुए शिष्य गुरु के चरणों को तीन बार स्पर्श करता है । प्रतिक्रमण आदि क्रिया में हर एक के लिए चरणस्पर्श सम्भवित नहीं है। इसलिए साधु रजोहरण में एवं श्रावक चरवले में गुरु के चरणों की स्थापना करके “अहो-का-यं-का-य-संफासं" के प्रत्येक अक्षर को अलग-अलग करके स्पष्ट स्वर में बोलता है । वह इस तरीके से -
'अ' अक्षर रजोहरण को दसों उंगलियों से स्पर्श करते हुए बोलता है । 'हो' अक्षर ललाट को दसों उंगलियों से स्पर्श करते हुए बोलता है । 'का' अक्षर रजोहरण को दसो उंगलियों से स्पर्श करते हुए बोलता है । 'यं' अक्षर ललाट को दसों उंगलियों से स्पर्श करते हुए बोलता है । 'का' अक्षर रमोहरण को दसों उंगलियों से स्पर्श एवं 'य' अक्षर ललाट को दसों उंगलियों से स्पर्श करते हुए बोलता है ।