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________________ सुगुरु वंदन सूत्र २.अनुज्ञापन स्थान: वंदन की आज्ञा पाकर शिष्य गुरु से कहता है - अणुजाणह मे मिउग्गहं - हे भगवंत ! मुझे मित अवग्रह में प्रवेश करने की आज्ञा दें। गुरु भगवंत के खूब नजदीक में रहने से शिष्य के मलिन वस्त्र या शरीरादि के स्पर्श से गुरुदेव की आशातना नही होनी चाहिए, उनके एकाग्रता पूर्ण कार्य में अंतराय पैदा नही होना चाहिए इस आशय से शिष्य हमेशा गुरु भगवंत का स्वदेह प्रमाण अर्थात् कम से कम गुरु से साडे तीन (३।।) हाथ का अंतर (अवग्रह) रखता है एवं जब भी वंदनादि कोई कार्य उपस्थित हो, तब गुरु की अनुज्ञा लेकर ही शिष्य अवग्रह में प्रवेश करता है । इसलिए वंदन का इच्छुक शिष्य ‘अणुजाणह में मिउग्गहं' यह शब्दों को बोलकर गुरु भगवंत के पास मित अर्थात् कम से कम ३१/ हाथ के अवग्रह में प्रवेश की अनुज्ञा मांगता है । अनुज्ञा देते हुए गुरु भगवंत कहते हैं : [अणुजाणामि] - 'मैं अनुज्ञा देता हूँ' अर्थात वंदन करने की तेरी भावना को तू पूर्ण कर । ___ गुरु की अनुज्ञा मिलते ही, तीन पीछे के, तीन आगे के एवं तीन भूमि के इस प्रकार नव संडासा की प्रमार्जना करके मित अवग्रह में प्रवेश करता हुआ शिष्य कहता है । निसीहि - पाप प्रवृत्तियों का त्याग करता हूँ । देव-गुरु के अवग्रह में प्रवेश करते समय पापवृत्तियों को त्याग करने का संकल्प करने के साथ मन-वचन-काया से देव-गुरु की किसी भी प्रकार से आशातना न हो जाए उसकी बहुत सावधानी रखने हेतु 'निसीहि' शब्द बोला जाता है । यह शब्द बोलने के साथ ही शिष्य विशिष्ट जागृतिपूर्वक गुणवान गुरु के गुणों में उपयोगवाला बनता है ।
SR No.006126
Book TitleSutra Samvedana Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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