________________
सूत्रसंवेदना - ३
शिष्य की वंदन करने की इच्छा जानने के बाद गुरु को यदि ऐसा लगे कि इस क्रिया से शिष्य को अवश्य कर्म की निर्जरा होगी, तो शिष्य की निर्जरा में निमित्त बनना मेरा कर्तव्य है, मेरा औचित्य है, ऐसा सोचकर, यदि अन्य कोई विशेष कार्य न हो तो शिष्य को वंदन करने की अनुमति देते हुए कहते हैं - [छंदेणं ] - तेरी इच्छा पूर्ण कर ।
११६
इस प्रकार गुरु भगवंत अनुमति दें परन्तु यदि उस समय गुरु भगवंत अन्य किसी विशेष कार्य में व्यस्त हो एवं वंदन की क्रिया से उनके कार्य में विक्षेप हो तो 'पडिक्खह' शब्द से 'अभी नहीं' ऐसा कहते हैं अथवा 'तिविहेणं' शब्द से मन-वचन-काया से वंदन करने का प्रतिषेध करते हैं। उस समय शिष्य 'मत्थएण वंदामि' बोलकर संक्षेप में वंदनकर वापिस जाता है ।
इच्छा-निवेदन-स्थान के इस पद को बोलते हुए एवं सुनते हुए शिष्य सोचता है
-
“जैन शासन की समाचारी कितनी अद्भुत है ! आत्म विकास की एक क्रिया भी स्वेच्छा से नहीं करनी है, किसी के कार्य में अडचन आए वैसे भी नहीं करनी । स्व-पर सब का आत्म विकास हो वैसे ही करनी है ।
मैं मूढ आज तक ऐसा मानता रहा कि अपनी मति के मुताबिक स्वेच्छा से कार्य करने से सुख और आनंद मिलेगा । परन्तु आज समझ मैं आया कि आज्ञा के पारतंत्र्य के बिना, गुणवान गुरु के मार्गदर्शन के अनुसार चले बिना, कभी भी सुख या शांति नहीं मिलेगी, इसलिए मैं संकल्प करता हूँ कि, ऐसे गुणवान गुरु की आज्ञा बिना अब मैं कहीं भी आगे नहीं बढूँगा है।”