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सुगुरु वंदन सूत्र
११५ भगवंत के प्रति बहुमान भाव को प्रकट करनेवाली क्रिया ही यह वंदन क्रिया है । इसलिए गुणवान के प्रति बहुमान भाव प्रगट करने एवं उसकी वृद्धि करने के लिए क्षमाश्रमण को पुनः पुनः वंदन करना चाहिए।
अब वंदन करने की इच्छावाला शिष्य, किस प्रकार वंदन करना चाहता है, यह स्वयं व्यक्त करता है -
जावणिजाए निसीहिआए - "हे भगवंत ! मैं रामप्पनिका एवं नैषेधिकी द्वारा आप को वंदन करना चाहता हूँ ।” ।
यापनिकापूर्वक वंदन करना अर्थात् मन एवं इन्द्रियों को काबू में लेकर वंदन करना । मन, वचन, काया को अन्यत्र जाने से रोककर, मन को एक मात्र गुरु गुण स्मरण में जोड़कर, वाणी को नम्र बनाकर, काया को सुचेष्टा में स्थापितकर वंदन करना। नैषेधिकीपूर्वक वंदन करना अर्थात् पाप प्रवृत्तियों का त्याग करके हिंसादि पाप या अन्य दोषों को टालते हुए पूर्ण सावधानी रखकर, समझ और शक्ति का पूर्ण उपयोग करके वंदन करना । शिष्य का इस तरीके से यापनिका एवं नैषेधिकीपूर्वक वंदन करने का प्रयत्न शिष्य में संयम, क्षमादि गुणों की वृद्धि करवाता है ।
यह पद बोलते समय शिष्य विनम्र भाव से विनती करता है - “हे भगवन्त! आपकी भक्ति करने के लिए मेरे पास कोई विशिष्ट शक्ति एवं आपको परखने की कोई विशिष्ट बुद्धि नहीं है, तो भी जितनी बुद्धि एवं शक्ति है, उन सब का उपयोग करके निरवद्य भाव से आपको वंदन करने की मेरी भावना है । यदि आप को योग्य लगे तो कृपा करके आप मुझे अनुज्ञा दें ।"
२१. निंदा करते हुए वंदन करना, २२. वंदन किया न किया मगर दूसरी बातों में लग जाना, २३. कोई देखे तो अच्छी तरह वंदन करना, परन्तु अंधेरा या दूरी हो तो खाली खड़े रहकर वंदन करना, २४. आवर्त समय हाथ ठीक तरह से ललाट को न लगाना, २५. राज-भाग (टेक्ष) चूकता करने की तरह तीर्थंकर की आज्ञा समझकर वंदन करना, २६. लोकापवाद से बचने के लिए वंदन करना, २७. मस्तक से रजोहरण का बराबर स्पर्श न करना, २८. कम अक्षर बोलना, २९. वंदन करके 'मत्थएण वंदामि' खूब जोर से बोलना, ३०. बराबर उच्चारण किए बिना मन में ही बोलना, ३१. खूब जोर से बोलकर वंदन करना, ३२. हाथ घुमाकर सब को एक साथ वंदन करना ।