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सुगुरु वंदन सूत्र
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'यत् किञ्चिद् मिथ्यया; 'मनो-दुष्कृततया, वचो-दुष्कृततया, काय-दुष्कृततया, क्रोध-युक्तया, मान-युक्तया, माया-युक्तया, लोभ-युक्तया; 'सार्वकालिक्या, सर्वमिथ्योपचारया, सर्वधर्मातिक्रमणया आशातनया, "मया योऽतिचारः कृतः तं क्षमाश्रमण ! प्रतिक्रामामि, निन्दामि, गहे, आत्मानं व्युत्सृजामि । 'मिथ्याभाव से, 'मन दुष्कृत, वचन दुष्कृत, काय दुष्कृत (आशातना से); 'क्रोध-युक्त, मान-युक्त, माया-युक्त, लोभयुक्त; (हुई आशातना से) ४ सर्वकाल संबंधी (आशातना से), सर्व मिथ्या उपचार रूप (आशातना से), एवं सर्व (अष्ट प्रवचन मातारूप) धर्म की मर्यादा तोड़ने रूप आशातना से; (इन में से) जिस किसी (भाव से) ५ मुझ से जो कोई अतिचार हुआ हो, ६ उसका हे श्रमाश्रमण ! मैं प्रतिक्रमण करता हूँ, निंदा करता हूँ, गर्दा करता हूँ (एवं दुष्कृतकारी ऐसी अपनी) आत्मा को वोसिराता हूँ । विशेषार्थ: १-इच्छानिवेदन स्थान :
इच्छामि खमासमणो' ! वंदिउं जावणिजाए निसीहिआए - हे क्षमाश्रमण ! मेरी शक्तियों का पूर्ण उपयोग करके एवं प्राणातिपात आदि पाप प्रवृत्तियों का त्याग करके मैं आप को वंदन करना चाहता हूँ ।
जैन शासन का सिद्धांत है कि, कोई भी कार्य गुरु भगवंत की अनुज्ञा प्राप्त करके ही करना चाहिए । इस सिद्धांत के अनुसार, वंदन करने को इच्छुक शिष्य भी सर्वप्रथम अपनी इच्छा गुरु भगवंत को व्यक्त करता है,
“हे क्षमाश्रमण ! मैं आपको वंदन करना चाहता हूँ ।" यह शब्द बोलकर 1. खमासमणो - आदि शब्दों के विशेषार्थ के लिए देखें 'सूत्र संवेदना' भाग १, सूत्र ३।