SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०८ सूत्रसंवेदना-३ बार गुरु के चरणों को स्पर्श करके गुरु का बहुमान करता है, उनकी महानता का स्वीकार करता है । यहाँ गुरु चरणों को स्पर्श करके शिष्य द्वारा गुरु के शरीर के सुख संबंधी पृच्छा की जाती है । वह 'अव्याबाध पृच्छा' नाम का तीसरा स्थान है । ४. शरीर संबंधी पृच्छा करने के बाद शिष्य संयम यात्रा के विषय में पृच्छा करता है । वह 'संयमयात्रा पृच्छा' नाम का चौथा स्थान है । ५. संयम पृच्छा करने के बाद शिष्य गुरु की इन्द्रियों एवं मन के संयम संबंधि पृच्छा करता है । वह ‘यापनपृच्छा' नाम का पाँचवा स्थान है । ६. इन प्रत्येक प्रश्नों के उत्तर सुनकर शिष्य अत्यंत आह्लादित होता है । वह जानता है कि, गुणवान गुरु की किसी भी प्रकार की आशातना घोर पाप कर्मों का बंध करवाती है । अशुभ कर्मबंध से दुर्गति की परंपरा का सृजन होता है । ऐसा न हो, इसलिए अज्ञान से, अविवेक से, कषाय की प्रबलता से या अन्य किसी भी कारण से दिवस के दौरान गुरु की किसी भी प्रकार की आशातना हुई हो तो शिष्य उस अपराध की आत्मसाक्षी से निंदा करता है, गुरुसमक्ष गर्दा (विशेष निंदा) करता है, पुनः वैसा पाप न हो, ऐसा संकल्प करता है एवं दुष्कृत करनेवाली अपनी उस पापी अवस्था का त्याग करता है (वोसिराता है) । यह 'अपराध क्षमापना' नाम का छट्ठा स्थान है । इस स्थान से यह सूत्र समाप्त होता है । इस तरीके से छः विभागों में बँटे हुए इस संपूर्ण सूत्र पर दृष्टिपात किया जाए, तो ज्ञात होता है कि, जैनशासन की इस एक छोटी सी क्रिया में भी कितनी गहराई है । विनय का कितना उच्चस्थान है एवं चित्तशुद्धि का कितना महत्त्व है । ___ इस सूत्र का उपयोग द्वादशावर्त वंदन करने के लिए प्रतिक्रमणादि क्रियाओं में अनेक बार किया जाता है । वंदन के लिए जब इस सूत्र का उपयोग होता है, तब विशेष प्रकार के विनय के उपदर्शन के लिए यह दो बार बोला जाता है । उसमें प्रथम वंदन करते हुए अवग्रह से बाहर निकलते समय, “आवस्सहि
SR No.006126
Book TitleSutra Samvedana Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy