SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नामि दंसणम्मिसूत्र बल्कि अपनी शारीरिक एवं मानसिक शक्ति का विचार कर, "उसके अनुरूप करने चाहिए; क्योंकि प्रसंग को पाकर आनंद के उछाल में आकर, शक्ति से अधिक धर्मकार्य किया जाए, तो शायद उस समय वह कार्य हो जाए,.. तो भी सतत उसका आनंद, अनुमोदना या उसके भाव की वृद्धि नहीं होती । इस कारण शक्ति से अधिक किया हुआ, धर्म कार्य सानुबंध मोक्ष का कारण नहीं बनता । उसी प्रकार शक्ति से अधिक किया हुआ दान, शील, तप या अन्य भी धर्म किसी का समावेश वीर्याचार में नहीं होता । स्वशक्ति का विचार करके, शक्ति से कम भी नहीं एवं शक्ति से अधिक भी नहीं, उस तरीके से की गई शास्त्रानुसारी धर्म क्रिया ही वीर्याचार रूप बनती है । इस गाथा का उच्चारण करते समय साधक सोचता है "प्रभु की कैसी दीर्घदृष्टि है, विवेक की कैसी पराकाष्टा है ! कहीं भी शक्ति छिपाने की बात नहीं, उसी प्रकार शक्ति से अधिक या स्वेच्छानुसार वर्तन की बात भी नहीं क्योंकि ये सब भाव काषायिक परिणाम हैं । ऐसे विवेकविहीन, काषायिक या स्वच्छंदी भावों से किए हुए धर्म द्वारा कभी भी आत्मकल्याण सिद्ध नहीं हो सकता । प्रभु की कैसी करुणा है कि इन सब से मुझे बचाने के लिए उन्होंने मुझे सावधान किया है । इस गाथा द्वारा उन्होंने मुझे बताया है कि कोई भी धर्मानुष्ठान करने से पहले सोचना कि लोभादि के अधीन होकर शक्ति से कम धर्म तो नहीं कर रहा हूँ ? जितना धर्म हुआ है वह प्रभु की आज्ञानुसार हुआ हो तो ही उसकी अनुमोदना करना एवं यदि ऐसा न हुआ हो तो गुरु भगवंत के पास दुःखार्द्र हृदय से उसकी आलोचना, निंदा, गर्हा करके आत्मा को शुद्ध करने का प्रयत्न करना एवं उत्तरोत्तर यथाशक्ति धर्मानुष्ठान करने का संकल्प करना ।” १०५
SR No.006126
Book TitleSutra Samvedana Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy