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सूत्रसंवेदना-३
ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप के विषय में या दान, शील, तप एवं भावरूप धर्म के विषय में, जब जब प्रवृत्ति करने का अवसर हो, तब तब अपनी शक्ति के अनुसार, उसका पूर्णतया उपयोग करके दानादि में प्रयत्न करना, न कि शक्ति छिपाकर प्रवृत्ति करना वीर्याचार का प्रथम भेद है । जिसमें १० गाथा कंठस्थ करने की शक्ति हो वह यदि ५-६ गाथा में ही संतोष माने तो उसने अपनी शक्ति को छिपाया ऐसा कहा जायेगा अथवा जो व्यक्ति लाख रुपये का दान करने की क्षमतावाला है और वह मात्र १००० रूपये का ही दान करके 'मैंने बहुत किया' ऐसा माने तो उसने भी अपनी शक्ति छिपाई है, ऐसा माना जाता है । इस तरीके से शास्त्र का अध्ययन करनेवाला या धन का दान करनेवाला वीर्याचार का पालन नहीं कर सकता, परन्तु अपनी शक्ति को लेश मात्र भी छिपाए बिना जो धर्म आराधना करता है, वही वीर्याचार के इस प्रथम आचार का पालन कर सकता है ।
२. परक्कमइ जो जहुत्तमाउत्तो - ज्ञानादि ग्रहण करते समय शास्त्र अनुसार जिस प्रकार से कहा गया है उसी प्रकार से जो पराक्रम-उद्यम करता है।
दोषमुक्त होने एवं आत्मा के परम आनंद को प्राप्त करने के लिए की जानेवाली धर्मक्रिया, कौन सी मुद्रा में रहकर, किस प्रकार के शब्दोच्चार पूर्वक एवं किस प्रकार के भाव से करनी है, उसकी सब विधि शास्त्र में बताई गई है । शास्त्रोक्त उस विधि को स्मृति में रखकर उस प्रकार से धर्मकार्य में किया हुआ प्रयत्न दूसरे प्रकार का वीर्याचार है ।
३. जुंजइ अ जहाथामं नायव्यो वीरिआयारो - (एवं इसके बाद धर्म मार्ग में) यथाशक्त्रिं जुड़ता है - वर्तन करता है, उसे वीर्याचार जानना ।
मोक्ष की प्राप्ति के लिए किए जानेवाले धर्मकार्य जिस प्रकार अपनी शक्ति से कम नहीं करने चाहिए, उसी तरह शक्ति से अधिक भी नहीं करने चाहिए