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नाणंमि दंसणम्मि सूत्र
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अन्वय सहित संस्कृत छाया: (ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तपाचारमाश्रित्य) अनिगृहित-बल-वीर्यः यः (ग्रहणकाले)
यथोक्तं आयुक्तः पराक्रमते । (तद् ऊर्ध्व) यथास्थाम च युनक्ति (असौ) वीर्याचारः ज्ञातव्यः ।।८।। गाथार्थ : __ (आगे की गाथाओं में वर्णित ज्ञानादि के ३६ आचारों को ग्रहण करने में) जो साधक बाह्य एवं आन्तरिक सामर्थ्य को छिपाये बिना, शास्त्रोक्त रीति से उपयुक्त बनकर (धर्मानुष्ठान में) पराक्रम करता है एवं उसके बाद उसमें यथाशक्ति (अपनी आत्मा को) जोड़ता है, (वैसे आचार को) वीर्याचार जानना ।
अथवा १. अपने बल-वीर्य को नहीं छिपाना २. यथायोग्य तरीके से (पंचाचार के अनुष्ठान में) पराक्रम करना एवं ३. मन-वचन-कायारूप तीन योगों को शक्ति के अनुसार (उन उन अनुष्ठानों में) जोड़ना, ये तीन प्रकार के वीर्याचार हैं। विशेषार्थ:
वीर्यांतराय कर्म के क्षयोपशम से प्रकट हुए बल, पराक्रम, शक्ति या उल्लास आदि को वीर्य कहते हैं । यह वीर्य मन, वचन एवं काया के माध्यम से प्रवृत्त होता है । उसमें जो मन, वचन, काया की प्रवृत्ति गुणप्राप्ति या कर्मनिर्जरा का साधन बने, उसे वीर्याचार58 कहते हैं । दूसरी अपेक्षा से सोचें तो, पाँचों प्रकार के आचारों में अपनी शक्ति के अनुसार (न शक्ति से कम न ज्यादा) शास्त्रानुसारी प्रवर्तन करना वीर्याचार है । इस वीर्याचार के तीन प्रकार हैं :
१. अणिगूहिअ-बल-वीरिओ - (ज्ञानादि के विषय में) अनिगृहीत बल-वीर्यवान अपनी शक्ति को नहीं छिपानेवाला । 58.वीर्यं - सामर्थ्य - तस्याचरणं - सर्वशक्त्या सर्वधर्मकृत्येष्वनिन्हवनेन प्रवर्तनं वीर्याचारः ।।
- आचार प्रदीप