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________________ १०२ सूत्रसंवेदना-३ होती है । इसलिए साधना जीवन में प्रवेश करनेवाले साधक को र्भ प्रतिदिन विविध कायोत्सर्ग करने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए । अभिंतरओ तवो होइ - (ये छः प्रकार का) आभ्यंतर तप है । प्रायश्चित्त आदि छः प्रकार के आभ्यंतर तप हैं । बाह्य तप से यह तप अति उच्च श्रेणी का है । उसमें भी प्रायश्चित्त आदि एक एक तप भी एक से बढ़कर एक हैं । ध्यान एवं कायोत्सर्ग तो सर्वश्रेष्ठ तप हैं, जो तत्काल मोक्ष दिलाने में समर्थ है। इस गाथा का उच्चारण करते हुए कर्मनिर्जरा का अर्थी साधक सोचता है, “प्रभुशासन में महापापी को भी पवित्र करनेवाली अंतरंग तप की कितनी सुंदर व्यवस्था है कि जिसमें साधक की शारीरिक शक्ति कम हो तो भी वह मन को नियंत्रण कर विशिष्ट कर्मनिर्जरा कर सकता है । मेरा भाग्योदय है, जिससे मुझे इस तप करने का सुंदर अवसर मिला है । ऐसा होते हुए भी प्रमाद के वश पड़ा हुआ मैं इस अवसर का लाभ नहीं ले सका । इसीलिए मेरी मलिन आत्मा अब तक निर्मल नहीं हुई । अब आज से ऐसा प्रयत्न करूँ कि प्रायश्चित्त आदि तप की सुविशुद्ध आराधना करके यहीं पर प्रशम सुख का आस्वाद पा सकूँ अवतरणिकाः अब क्रम से वीर्याचार बताते हैं - गाथा: । अणिगूहिअ-बल-वीरिओ, परक्कमइ जो जहुत्तमाउत्तो । जुंजइ अ जहाथामं, नायव्वो वीरिआयारो ।।८।। गाथा
SR No.006126
Book TitleSutra Samvedana Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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