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________________ नाणंमि दंसणम्मि सूत्र १०१ २ - शरीरव्युत्सर्ग : शरीर के ममत्व को त्याग करके, शुभं ध्यान में स्थिर होने के लिए ताव कायं ठाणेणं मोणेणं झाणेणं - बोलकर जो कायोत्सर्ग किया जाता है, वह शरीर व्युत्सर्ग (कायोत्सर्ग) कहलाता है । ३ - उपधिव्युत्सर्ग : अगर दोषित अथवा रागादि की वृद्धि करनेवाले वस्त्र-पात्रादि आ जाएँ, तो निष्परिग्रही मुनि अपने अपरिग्रह व्रत को अखंड रखने के लिए उनका त्याग करते हैं अथवा किसी कारण से दोषित उपधि लेनी पडे, परन्तु बाद में निर्दोष की प्राप्ति हो जाए, तब शास्त्र विधि के अनुसार दोषित उपधि का त्याग करते हैं (परठवते है), उनके ऐसे त्याग को उपधि व्युत्सर्ग कहा है। ४ - भक्तपान व्युसर्ग : रागादि भावों की वृद्धि करनेवाले या अशुभ आहारपानी अनाभोगादि से आ जाए तो उनका त्याग करना भक्तपान व्युत्सर्ग है । इस प्रकार 'द्रव्यव्युत्सर्ग' चार प्रकार का है । इस तप में सम्यक् प्रकार से यत्न करने से काषायिक भाव घटते हैं, सांसारिक भावों से आत्मा पीछे हटती है एवं आत्मा के उपर लगे हुए कर्म धीरे धीरे नष्ट हो जाते हैं । इस तरह द्रव्य व्युत्सर्ग करने से १ - कषाय व्युत्सर्ग २ - संसार व्युत्सर्ग, ३ - कर्मव्युत्सर्ग नामक तीन प्रकार के भाव-व्युत्सर्ग की प्राप्ति होती है । उच्च-उच्चतर उत्सर्ग (त्याग) करने के लिए प्रारंभ में बार बार इन सब कायोत्सर्ग की आराधना अत्यावश्यक है । स्वयं तीर्थंकर परमात्मा भी अपने साधनाकाल में निरंतर अप्रमत्तता से काउसग्ग एवं ध्यान में रहते हैं, क्योंकि कायोत्सर्ग के साथ दोष क्षय एवं कर्म क्षय का सीधा संबंध है । कायोत्सर्ग से काया की जड़ता दूर होती है, शरीर हलका बनकर संयम साधक क्रियाएँ करने में समर्थ एवं उत्साही बनता है, चित्त की एकाग्रता प्राप्त होती है । फलस्वरूप स्वतः निर्मल प्रज्ञा का उद्भव होता है । उससे अपनी कमजोरियां स्पष्टरूप से जानकारी में आती हैं एवं वास्तविक मोक्षमार्ग का दर्शन होता है । उस मार्ग में आगे बढ़ने से दोषों एवं कर्म का क्षय होता है एवं क्रम से श्रेणी काल में प्रकट होनेवाले सर्वश्रेष्ठ भावोत्सर्ग की सिद्धि
SR No.006126
Book TitleSutra Samvedana Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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