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सूत्रसंवेदना - ३
अवस्थानों/ सोपानों पर आरूढ़ होकर आत्मा सर्व कर्मों का नाश करके मोक्ष सुख को प्राप्त करती है । इस तरीके से शुभध्यान कर्मक्षय का कारण होने से उसका समावेश अभ्यन्तर तप में किया गया है ।
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६. उस्सग्गोवि अ, - एवं कार्योत्सर्ग अथवा त्याग भी (आभ्यंतर तप है) काया की ममता को त्यागकर एक ही आसन में रहना कायोत्सर्ग है । ध्यान के प्रभाव से जब देहाध्यास छूटता है - 'शरीर ही मैं हूँ' ऐसी बुद्धि का नाश होता है, तब जीव क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होता है । श्रेणी द्वारा क्रम से केवलज्ञान प्राप्तकर जीव शुक्लध्यान के अंतिम दो अवस्थानों / सोपानों का प्रारंभ करता है, तब काया के पूर्ण त्यागरूप पराकाष्टा का कायोत्सर्ग प्राप्त होता है । यह श्रेष्ठ कायोत्सर्ग पाँच ह्रस्व अक्षरों को बोलते हु जितना समय लगता है, उतने ही समय में मोक्ष प्राप्त करवाता है । तत्काल मोक्ष प्राप्त करवानेवाला यह कायोत्सर्ग सर्वश्रेष्ठ कक्षा का तप कहलाता है ।
ऐसे उत्तमोत्तम कायोत्सर्ग को प्राप्त करने के लिए नीचे की भूमिका के साधक काया को किसी एक स्थान में स्थिर कर, मौन धारण कर, मन को शुभ ध्यान में स्थिर कर विविध प्रकार का कायोत्सर्ग करते हैं । उन सब कायोत्सर्गों का भी इस तप में समावेश होता है ।
उत्सर्ग का दूसरा अर्थ है त्याग। उसके दो प्रकार हैं
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(१) द्रव्य व्युत्सर्ग (२) भावव्युत्सर्ग
शरीरादि के प्रति ममता का त्यागकर अनासक्त भाव को प्राप्त करने के लिए जो लोकसमुदाय, वस्त्र, पात्र या कायादि का त्याग किया जाता है, वह 'द्रव्यव्युत्सर्ग' कहलाता है । उसके चार प्रकार हैं ।
१ - गणव्युत्सर्ग : विशिष्ट प्रकार की साधना करने की इच्छा रखनेवाले गीतार्थ 'साधु लोकसमुदाय से हटकर एकाकी विहरण करके अपनी आत्मा को सर्वजन से निर्लेप करने का जो यत्न करते हैं, उसे गणव्युत्सर्ग कहते हैं ।