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नाणंमि दंसणम्मि सूत्र . ९९ + ऐकत्व : अर्थात् किसी एक द्रव्य के एक ही पर्याय विषयका ध्यान । + सवितर्क : अर्थात् द्वादशांगीरूप श्रुत के आधार पर होनेवाला ध्यान । • अविचार : अर्थात् विचरण (संक्रमण) रहित ध्यान । इस ध्यान में शब्द से
अर्थ में या अन्य अन्य योग में संक्रमण नहीं होता, इसलिए इसे अविचार कहते हैं ।
वायु रहित स्थान में रहे हुए निष्कंप दीपक की ज्योति जैसी स्थिरतावाला यह ध्यान निर्विकल्प होता है । यह ध्यान बारहवें गुणस्थानक के अंत तक रहता है एवं उसके अंत में केवलज्ञान उत्पन्न होता है । ३. सूक्ष्मक्रिया-अप्रतिपाति (अनिवृत्ति) :
मोक्ष गमन के अत्यंत नजदीक के समय में सर्वज्ञ केवली भगवंत मन एवं वचन योग का संपूर्ण निरोध करके, बादर काय योग का भी निरोध करते हैं । मात्र श्वासोच्छ्वास की सूक्ष्म क्रिया बाकी रहती है । इससे फिर कभी वापिस लौटना नहीं होता, मतलब कि यह सूक्ष्म क्रिया मिटकर अब कभी भी स्थूल क्रिया नहीं होनेवाली है इसलिए इस ध्यान का नाम सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति या सूक्ष्म क्रिया अनिवृत्ति बताया गया है ।
यह ध्यान तेरहवें गुणस्थान के अंत में मन एवं वचन योग रोकने के बाद सूक्ष्म काययोगी केवली को काययोग रोकने के समय होता है । यहां आत्मा लेश्या एवं योग रहित बनती जाती है, शरीर प्रवृत्ति से आत्मा छूटती जाती है, सर्व कर्मों, तेजस-कार्मण शरीर एवं आयुष्य से आत्मा अलग होती जाती है । ४. व्युपरत क्रिया-अप्रतिपाति (अनिवृत्ति):
व्युपरत अर्थात् जिसमें क्रिया सर्वथा रुक गई हो । मेरुपर्वत की तरह अडोल शैलेषी अवस्था में अयोगी केवली की सूक्ष्म क्रिया का भी विनाश होता है । यहां से भी पुनः गिरने की संभावना नही रहती । इसलिए १४वें गुणस्थान में होनेवाले इस ध्यान को व्युपरत क्रिया अप्रतिपाति या अनिवृत्ति कहते हैं ।
शुक्ल ध्यान के प्रथम दो अवस्थानों/सोपानों पर आरूढ़ हुई आत्मा घाति कर्मों का नाश कर केवलज्ञान प्राप्त करती है एवं शुक्लध्यान के अंतिम दो