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नाणंमि दंसणम्मि सूत्र
विषय-कषाय के अधीन बने हुए जीव को अशुभ ध्यान सहज है, परन्तु शुभ ध्यान में मन को स्थिर करने के लिए बहुत प्रयत्न करना पड़ता है । उसके लिए यथाशक्ति अनशन वगैरह तप करके मन एवं इन्द्रियों को बारबार अशुभ भाव में जाने से रोकना चाहिए, शास्त्र श्रवण एवं शास्त्र अभ्यास द्वारा तत्त्वभूत पदार्थों को जानना चाहिए, उनका बारबार चिंतन करके हृदय को उससे भावित करना चाहिए एवं उनके उपर गंभीर अनुप्रेक्षा करनी चाहिए । इस प्रकार का प्रयत्न हो, तो उन पदार्थो में मन की एकाग्रतारूप शुभ ध्यान प्राप्त हो सकता है।
धर्मध्यान :
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शुभध्यान में प्रथम धर्मध्यान है, जिसके चार प्रकार हैं :
१ - आज्ञाविचय : 'परम हितकारक प्रभु की क्या आज्ञा है ? उसके पालन से आत्मा को कैसा लाभ होता है ? न पालने से कैसे कैसे नुकसान हो हैं ? मेरी शक्ति अनुसार मुझ से उसका कितना पालन हो सकता है ?' इन सब बातों पर चिंतन, मनन एवं भावन करने द्वारा मन को एकाग्र करना, 'आज्ञाविचय' नामक धर्मध्यान है ।
२ - अपायविचय : राग, द्वेष, क्रोधादि कषाय कैसे कैसे अहित का कारण हो सकते हैं ? उसके कारण वर्तमान एवं भविष्य में कैसी कैसी विडंबनाएँ खड़ी हो सकती हैं ? इन मुद्दों पर चिंतन मनन करने द्वारा मन को एकाग्र करना 'अपायविचय' नामक धर्मध्यान है ।
३ - विपाकविचय : कषाय के अधीन होकर प्रवृत्ति करने से भविष्य में नरक, तिर्यंच आदि के भवों में कैसे कैसे दुःख सहन करने पड़ेंगे ? इन मुद्दों पर चिंतन मनन करने द्वारा मन को एकाग्र करना 'विपाकविचय' नामक धर्मध्यान है ।
४ - संस्थानविचय : चौदह राजलोक, उनमें रहनेवाले अनंत जीव, कर्म के कारण अलग अलग स्थान में उनको प्राप्त हुई अवस्थाएँ : इन मुद्दों पर चिंतन मनन करने द्वारा मन को एकाग्र करना 'संस्थानविचय' नामक धर्मध्यान कहलाता है ।