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सूत्रसंवेदना-३ आत्मसात् करके जो धर्मदेशना देते हैं, वे विपुल कर्मनिर्जरा करते हैं । शास्त्र में कहा गया है कि 'जिनकल्पी जिनकल्प स्वीकार कर जो कर्मनिर्जरा करते हैं, उससे भी अधिक कर्मनिर्जरा अमोघ देशना लब्धिधारी दशपूर्वी को होती है ।'
५. झाणं - ध्यान, मन की एकाग्रता किसी भी विषय में मन को एकाग्र करना, ध्यान है अथवा सुदृढ़ आत्म व्यापार को भी 'ध्यान' कहते हैं । उसके चार प्रकार हैं : आर्त्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान । उसमें से प्रथम दो ध्यान कर्म का बंध करवाकर जीव को तिर्यंच एवं नरकगति में ले जाते हैं एवं वे संसार का कारण हैं, जब कि अंतिम दो ध्यान पुण्य बंध द्वारा मनुष्यगति एवं देवगति रूप सद्गति एवं कर्मनिर्जरा करवाकर सिद्धिगति का कारण बनते हैं । शुभ ध्यान लंबे समय से इकट्ठे किए हुए अनंत कर्मों का क्षण में नाश करता है । इसलिए अंतिम दो ध्यानों का समावेश आभ्यंतर तप में किया है ।
शास्त्रों में मोक्ष प्राप्ति के अनेक उपाय बताए गये हैं, उन सब में श्रेष्ठ उपाय ध्यान है, क्योंकि तप, जप, संयम आदि कुछ भी न हो, तो भी यदि शुभध्यान प्राप्त हो जाए तो मरुदेवी माता एवं भरत चक्रवर्ती वगैरह की तरह मोक्ष मिल सकता है । इसका मतलब यह नहीं है कि तप, जप आदि बेकार हैं, परन्तु वे सब भी ध्यान को प्राप्त करवाकर मोक्ष तक पहुंचा सकते हैं । इसलिए ध्यान मोक्ष का साक्षात् कारण माना जाता है।
मोक्ष के अनुकूल सर्वसंवर भाव की प्राप्ति तथा मन-वचन-काया की चंचलता का त्याग कर आत्मभाव में संपूर्ण स्थिर होने का कार्य भी इस ध्यान से ही संभव बनता है । इतना ही नहीं, सर्व ऋद्धि, समृद्धि या तीर्थंकर बनने का सौभाग्य भी समापत्तिरूप ध्यान से प्राप्त होता है । इसलिए साधक को शुभध्यान के लिए खास प्रय़त्न करना चाहिए । 56. सुदढप्पयत्तवावरणं णिरोहो व विज़माणाणं ।
झाणं करणावं मायं ण उ चित्तणिरोहमेत्तागं ।। ३०७१।। - विशेष आवश्यक भाष्य सुदृढ़ प्रयत्नपूर्वक व्यापार एवं विद्यमान करणों का निरोध, ध्यान कहलाता है; परन्तु चित्तनिरोध मात्र नहीं।