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नाणमिदंसणम्मिसूत्र
परावर्तन द्वारा स्थिर हुए शास्त्रवचनों पर अनुप्रेक्षा करने से 'नवीन दृष्टि का उद्भव होता है। उससे शास्त्रों के रहस्य हाथ लगते हैं, अंतःशत्रुओं का अवलोकन हो सकता है, उनके नाश के उपाय प्राप्त होते हैं एवं मोक्ष मार्ग का दर्शन होता है । फलस्वरूप मोक्षमार्ग में प्रवर्तन वेगवंत बनता है ।
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शास्त्र वचनों की अनुप्रेक्षा करके बहुत भावों को जानते हुए भी अगर कषायों का नाश करनेवाले आत्मोपयोगी भाव न जान सकें तो आत्महित नहीं हो सकता । इसलिए वैसी आत्महित से निरपेक्ष अनुप्रेक्षा स्वाध्याय स्वरूप नहीं बन सकती । परावर्तना से भी अनुप्रेक्षा अधिक फलदायी है । परावर्तन के लिए शारीरिक शक्ति की आवश्यकता है, अनुप्रेक्षा तो शरीर की शक्ति क्षीण हो तो भी हो सकती है ।
५ - धर्मकथा : अनुप्रेक्षा से स्पष्ट हुए भावों को, अपने या अन्य के हित के लिए योग्य आत्माओं के समक्ष प्रगट करना 'धर्मकथा' नामक स्वाध्याय है।
पूर्व के चार प्रकार के स्वाध्याय द्वारा शास्त्र वचनों को अपने हृदय में परिणत करके जो स्वयं गीतार्थ बने हैं और कुशल बुद्धि की योग्यता के कारण गुरु ने जिनको धर्मोपदेश देने का अधिकार सौंपा है, वे महात्मा ही 'धर्मकथा' नामक स्वाध्याय करने के अधिकारी है; क्योंकि वे किस जीव को, कब, क्या कहने से फल मिलेगा, वह ठीक तरीके से जान सकते हैं और इसलिए वे श्रोता की योग्यता - अयोग्यता का निर्णय कर तदनुसार धर्मकथा करते हैं । इस प्रकार वे अन्य को धर्ममार्ग में योग्य तरीके से सहायक बन सकते हैं ।
अधिकार प्राप्त किए बिना जो धर्मोपदेश करते हैं वे स्व-पर का हित नहीं कर सकते । कभी कभी तो सामनेवाले व्यक्ति की योग्यता का विचार किए बिना धर्मोपदेश देने से हित की भावना से किया हुआ धर्मोपदेश भी सामनेवाली व्यक्ति को अनर्थ के खड्डे में डाल देता है । इसीलिए शास्त्रकारों ने सभी को धर्मकथा का अधिकार नहीं दिया है ।
पहले चार प्रकार का स्वाध्याय मुख्यतया स्वात्म कल्याण के लिए है, जब कि यह 'धर्मकथा' नामक स्वाध्याय स्वकल्याण के उपरांत विशिष्ट प्रकार से पर-कल्याण का साधक है । पहले चार प्रकार के स्वाध्याय द्वारा तत्त्व