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सूत्रसंवेदना-३
के तप भी शुद्ध हो सकते हैं । शास्त्र ज्ञान के बिना अन्य तप की या अहिंसादि धर्म की कोई कीमत नहीं । इसलिए कहते हैं कि 'पढमं नाणं तओ दया' - प्रथम ज्ञान एवं बाद में दया । इसके अतिरिक्त ज्ञानी श्वासोच्छ्वास में जितने कर्म का नाश करता है, उतने कर्म अज्ञानी करोड़ों भव तक तपकर के भी नाश नहीं कर पाता । इसलिए शास्त्र में कहा गया है कि 'सज्झाय समो नत्थि तवो' - स्वाध्याय जैसा कोई तप नहीं ।
शास्त्रकारों ने स्वाध्याय के निम्नलिखित पाँच प्रकार बताए हैं - १ - वाचना : आत्महित का कारण बने, इस तरीके से गीतार्थ गुरु भगवंत श्रोताओं को शास्त्र का श्रवण कराए एवं श्रोता भी अपनी आत्मा का हित हो उस तरीके से श्रवण करें, वह वाचना' नामक स्वाध्याय है; परन्तु आत्महित की अपेक्षा के बिना की हुई वाचना या शास्त्र श्रवण स्वाध्याय रूप नहीं बन सकते।
२ - पृच्छना : वाचना के बाद जो पदार्थ समझ में न आया हो उसे समझने अथवा उस विषय को बहुत गहराई से समझने या उसे दृढ़ करने के लिए ज्ञानी भगवंतों को विनीत भाव से, बाल भाव से पूछना 'पृच्छना' नामक स्वाध्याय है ।
३ - परावर्तन : वाचना एवं पृच्छना द्वारा जाने हुए भावों को आत्मसात् करना उनके अनुरूप जीवन व्यवहार बनाना, उन शास्त्र वचनों एवं अर्थ को पुनः पुनः दोहराना ‘परावर्तना' नामक स्वाध्याय है । ऐसे भावों से रहित, मात्र शब्दों से बोलना या गाथाएँ गडगडाना, व्यवहार से पुनरावर्तन नामका स्वाध्याय होते हुए भी लक्ष्य की सिद्धि का कारण नहीं बनता । इसलिए वह वास्तव में 'परावर्तना' नामक स्वाध्याय नहीं है।
४ - अनुप्रेक्षा : ‘अनु' अर्थात् पीछे से एवं 'प्रेक्षा' अर्थात् प्रकर्ष से देखना । अतः अध्ययन किए हुए विषय का बाद में हर एक दृष्टिकोण से गंभीरतापूर्वक चिन्तन करना ‘अनुप्रेक्षा' नाम का स्वाध्याय है ।