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नाणंमि दंसणम्मि सूत्र
शास्त्र में वैयावच्च को अप्रतिपाति (आने के बाद चला न जाए वैसा) गुण कहा गया है । इस तप के बारे में तो भगवान ने कहा है कि, "जो गिलाणं पडियरइ सो मां पडियरइ।" 'जो ग्लान की (रोगी व्यक्ति की) सेवा करता है वह मेरी सेवा करता है ।
वैयावच्च तप सुंदर है, परन्तु इस तप की आराधना करना सरल नहीं है। जो व्यक्ति सामने वाले व्यक्ति की सानुकूलता को समझ सकते हैं, अपने मनवचन-काया को कोमल बना सकते हैं, द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव एवं उत्सर्गअपवाद इत्यादि को जानते हैं, वे ही इस तप की आराधना कर सकते हैं । इसलिए जिसे भी गुणवान की भक्ति करनी हो उसे मानादि कषाय को छोड़कर अपने मन-वचन-काया को नम्र बनाकर समझदारी पूर्वक सामने वाले व्यक्ति की अनुकूलता के अनुसार सेवा करनी चाहिए और ये खास ध्यान में रखना चाहिए की गुणवान की भक्ति कर्मनिर्जरा या गुणप्राप्ति के लिए करनी है । कीर्ति आदि की कामना से या सामनेवाले व्यक्ति को संतुष्ट करके कोई कार्य करवा लेने की भावना से की हुई सेवा का समावेश इस तप में नहीं होता ।
४. तहेव सज्झाओ - इसी प्रकार स्वाध्याय ।
सर्वज्ञ भगवंत के आत्म हितकारक वचन जिसमें संगृहीत किए गये हैं उसको शास्त्र कहते हैं । इन शास्त्र वचनों का सहारा लेकर विषय-कषाय से दूषित अपनी आत्मा को शुद्ध करने का, विभाव में गई आत्मा को स्वभाव में लाने का या स्वभाव की प्राप्ति हो वैसे संस्कारों का सिंचन करने का प्रयत्न किया जाता है । उसके लिए शास्त्र का जो पुनः पुनः अध्ययन आदि किया जाता है, उसे 'स्वाध्याय' कहते हैं ।
बारह प्रकार के तप में स्वाध्याय एक अति महत्त्व का सुन्दर तप है । स्वाध्याय से प्राप्त हुए शास्त्रज्ञान से अनशन से लेकर ध्यान या कायोत्सर्ग तक 54 स्व=अपना एवं अध्यायउअध्ययन अर्थात् आत्मा का हित जिस शास्त्र-वचन से हो उन शास्त्र
वचन का अध्ययन-अध्यापन-चिंतन-मनन स्वाध्याय है । 55 स्वभावलाभसंस्कारकारणम् ज्ञानमिष्यते ।
- ज्ञानसार