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सूत्रसंवेदना-३
पहुँचता है । यदि विनय न हो तो इन में से कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता। इसलिए मुमुक्षु को मान त्याग कर, 'विनय' नामक तप का स्वीकार करना अत्यंत आवश्यक है । जिज्ञासा : ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार एवं तपाचार इन चार आचारों में एवं ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय एवं तपविनय में क्या अंतर है ? तृप्ति : ज्ञानादि गुणों की सम्यग् प्राप्ति या वृद्धि के लिए किया गया आचरण ज्ञानादि आचार है एवं ज्ञानादि गुणों के प्रति अंतरंग बहुमान का भाव एवं उस प्रकार से होनेवाला विनय पूर्ण बाह्य व्यवहार ज्ञानादिविनय है । दोनों में बाह्य
आचार एक सा दीखता है, तो भी पंचाचार में आचार की । क्रिया की मुख्यता है एवं विनय में हार्दिक बहुमान की, नम्रता के भाव की मुख्यता है ।
३. वेयावचं - वैयावृत्त्य अर्थात् सेवा, भक्ति । गुणवान आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, स्थविर, शैक्ष (नया साधु), ग्लान, साधर्मिक, कुल, गण एवं संघ इन दस को विधिपूर्वक, निर्दोष एवं कल्प आहार, पानी, वस्त्र, पात्र, वसति, औषध आदि देने द्वारा भक्ति करना या अपनी काया द्वारा उनकी सेवा करना अथवा उनके रोग-उपसर्गादि को दूर करना या उनको शारीरिक-मानसिक अनुकूलता बनाये रखने के लिए जो कुछ भी करने योग्य हो वह करना “वैयावच्च" नामक तप है ।
उपवासादि तप करके जीव आहारादि की आसक्ति छोड़कर जिस प्रकार आत्म भाव के अभिमुख हो सकता है । उसी प्रकार क्षमादि गुणों के सागर आचार्यादि की बहुमानपूर्वक सेवा एवं भक्ति करके, मुमुक्षु जीव क्रोधादि कषायों को शांत करके क्षमादि गुणों के अभिमुख हो सकता है एवं उसके द्वारा कर्मनिर्जरा कर सकता है ।
53.वैयावच्च की विशेष जानकारी के लिए देखिए सूत्र सं. भा. २, वैयावच्चगराणं सूत्र पृ. २६५
वैयावृत्यं - व्याधिपरीषहोपसर्गादौ यथाशक्ति तत्प्रतीकारोऽन्नपानवस्त्रपात्रप्रदानविश्रामणादिभिस्तदानुकूल्यानुष्ठानं च । तच्च दशधा ।
- आचार प्रदीप