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नाणंमि दंसणम्मि सूत्र
१. कायिक विनय : १. गुरु आए तब खड़ा होना २. हाथ जोड़ना ३. आसन प्रदान करना ४. गुरु की आज्ञा में रहने की इच्छा करना ५. वंदन करना ६. सेवा करना ७. गुरु आए तब सामने जाना एवं ८ जाएँ तब छोड़ने जाना, यह आठ प्रकार का कायिक विनय है ।
२. वाचिक विनय १. हितकारी बोलना २. कम बोलना ३. नम्रता से बोलना ४. आगे पीछे का ( परिणाम वगैरह का ) विचार करके बोलना चार प्रकार का वाचिक विनय है ।
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३. मानसिक विनय - १. अकुशल चित्त का निरोध करना एवं २. कुशल चित्त की उदीरणा करना ये दो प्रकार का मानसिक विनय है ।
इसके सिवाय तीर्थंकर, सिद्ध, कुल, गण, संघ, क्रिया, धर्म, ज्ञान, ज्ञानी, आचार्य, स्थविर, उपाध्याय एवं गच्छाधिपति इन १३ स्थानों की आशातना टालना, भक्ति करना, बहुमान करना एवं उनके गुणों की कीर्तन - स्तुति करना, इन सब का ४ प्रकार से विनय करने पर कुल ५२ प्रकार का विनय भी होता है ।
धर्म का मूल विनय है । सर्व कल्याण का कारण विनय है । विनय से 1 आठों प्रकार के कर्मों का नाश कर सकते हैं, क्योंकि अंतर में प्रगट हुआ नम्रतारूप विनय का परिणाम ज्ञानादि गुणों को प्राप्त करवाकर जीव को मोक्ष के निकट पहुँचा सकता है।
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मानमुक्त होकर जीव जब विनयपूर्वक 2 व्यवहार करता है तभी उसे विद्या मिलती है । विद्या (सम्यग्ज्ञान) से जीव सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है एवं सम्यग्दर्शन से सम्यक्चारित्र प्राप्त होता है । इस चारित्र द्वारा जीव मोक्ष तक विनीयतेऽनेनाष्टप्रकारं कर्मेति विनयः ।
रे जीव मान न कीजिए, माने विनय न आवे रे, विनय विना विद्या नहीं, तो किम समकित पामे रे, समकित विण चारित्र नहीं, चारित्र विण नहीं मुक्ति रे. विनयायत्ताश्च गुणाः सर्वे विनयश्च मार्दवायत्तः यस्मिन् मार्दवमखिलं, स सर्वगुणभाक्त्वमाप्नोति ।
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मान की सज्झाय
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प्रशमरति - १६९