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नाणंमि दंसणम्मि सूत्र प्रायश्चित्त करनेवाली आत्मा को यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि, गुरु के पास प्रायश्चित्त करने के लिए जाते समय कहीं मान, मायादि कषायों को (शल्यों को) स्थान न मिल जाए, क्योंकि अभिमान वश छोटा लगता पाप भी छिपाने का मन हो जाए तो रूक्मि साध्वी की तरह आत्मा निर्मल नहीं बन सकती । इसके अलावा, प्रायश्चित्त लेते समय अगर अपने आप को छिपाने का मन हो तो भी लक्ष्मणा साध्वी की तरह संसार का भ्रमण बढ़ जाता है । इसलिए प्रायश्चित्त नामक तप को करने के इच्छुक साधक को सर्वप्रथम जीवन में पापभीरुता, सरलता, खुलापन, नम्रता आदि गुणों को अपनाना चाहिए, नहीं तो प्रायश्चित्त नामक तप के आचार में अनेक अतिचार लगने की संभावना रहती है । जिज्ञासा : प्रायश्चित्त से क्या लाभ होता है ? तृप्ति : प्रायश्चित्त करने से पूर्व में किए हुए पाप नाश होते हैं। पाप के संस्कार निर्बल होते हैं, उससे भविष्य में पुनः उन पापों का वैसे ही क्लिष्ट भावों से पुनरावर्तन नहीं होता और पाप कर्मों के नाश से आत्मा विशुद्ध बनती है । जिससे वह धर्म मार्ग में शीघ्र प्रगति कर सकती है ।
२. विणओ - गुण प्राप्ति के लिए नम्रतापूर्ण शास्त्रानुसारी व्यवहार विनय नाम का तप है। __ अहंकार आदि दोषों से परे रहकर, भौतिक अपेक्षा को किनारकर ज्ञानादि गुणों की प्राप्ति के लिए मन-वचन-काया का नम्रताभरा व्यवहार 'विनय' नाम का तप है। 49. पायच्छित्तकरणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ?
पायच्छित्तकरणेणं जीवे पावकम्मविसोहिं जणयइ, निरइयारे यावि भवइ, सम्मं च पायच्छित्तं पडिवज्जमाणे मग्गं च मग्गफलं च विसोहेइ, आचारं आचारफलं च आराहेइ । हे भगवंत ! प्रायश्चित्त करने से जीव क्या प्राप्त करता है ? प्रायश्चित्त करने द्वारा जीव पापकर्म की विशुद्धि प्राप्त करता है एवं निरतिचार व्रतवाला होता है । अच्छी तरह प्रायश्चित्त का स्वीकार करने से मोक्षमार्ग एवं मोक्षमार्ग के फल को विशुद्ध करता है और आचार एवं आचार के फल की आराधना करता है ।
- उत्तराध्ययन-अध्ययन-२९-१६