SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८८ सूत्रसंवेदना - ३ गाथार्थ : प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान एवं कायोत्सर्ग ये भी अभ्यंतर तप हैं । विशेषार्थ : १. पायच्छित्तं - पाप को छेदनेवाली, पाप को निर्मूल करनेवाली क्रिया । 47 जिस क्रिया द्वारा प्रायः चित्त का, मन का या आत्मा का शुद्धीकरण होता है, वैसी क्रिया को प्रायश्चित्त कहते हैं अथवा मन, वचन एवं काया से जीवन में जो पाप हुए हैं, उन पापों की शुद्धि के लिए, पापविरोधी भावों को प्रगट करनेवाली सर्वज्ञ भगवंतों द्वारा बताई हुई क्रिया को प्रायश्चित्त कहते हैं । यह प्रायश्चित्त दस प्रकार का हैं । 48 अनादिकाल से अंतर में पड़े हुए कुसंस्कार जीव को पाप प्रवृत्ति करवाकर दुःखी करते हैं । जब तक इन कुसंस्कारों का उन्मूलन न हो तब तक जीव पाप प्रवृत्ति से पीछे लौटकर सच्चे सुख की खोज नहीं कर सकता । इसलिए वास्तविक सुख की इच्छा रखनेवाले साधक को इस जीवन में तथा इस के पूर्व के भवों में कैसे पाप किए है एवं किस भाव से किए हैं, वह शास्त्र वचनों के आधार से जानना चाहिए, जानकर गीतार्थ गुरु भगवंत के पास सरल भाव से उनका स्वीकार करना चाहिए एवं गुरु भगवंत उनके बदले में जो क्रिया जिस भाव से करने को कहें वह करनी चाहिए । यह प्रायश्चित्त नाम का तपाचार है 47. पावं छिंदइ जम्हा पायच्छित्तंति भण्णए तम्हा । पाएण वावि चित्तं विसोहई तेण पच्छित्तं ।। द. वै. हारिभद्रीय वृत्ति - ४८ 48. प्रायश्चित्त शब्द की विशेष जानकारी के लिए देखें सूत्र संवेदना भा. १ 'तस्स उत्तरी' सूत्र । प्रायश्चित्त - तत्र प्रायश्चित्तमतिचारविशुद्धिहेतुः यथावस्थितं प्रायो - बाहुल्येन चित्तमस्मिन्नितिकृत्वा, तच्चालोचनादि दशविधं । तद्यथा - द. वै. हारिभद्रीय वृत्ति - ' आलोयणपडिक्कमणे मीसविवेगे तहा विउस्सग्गे । तवछे अमूल-अणवट्ठया य पारंचिए चेव ।। आलोचना, प्रतिक्रमण, मिश्र, विवेक, कायोत्सर्ग, तर्पा, छेद", मूल, अनवस्थाप्य एवं पारांचित -४८ -
SR No.006126
Book TitleSutra Samvedana Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy