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________________ सूत्रसंवेदना-३ इन्द्रिय, कषाय एवं योग की संलीनता साधु को निरंतर करनी चाहिए एवं श्रावकों को भी योग्य समय पर इस तप को करने से नहीं चूकना चाहिए, क्योंकि इन तीन की संलीनता से मोक्षमार्ग पर सरलतापूर्वक आगे बढ़ा जा सकता है । ४ - विविक्तचर्या संलीनता : स्त्री, पुरुष या नपुंसक आदि से रहित एकांत स्थान में शयन, आसन एवं निवास रखकर, पौषध में रहे हुए सुदर्शन शेठ की तरह ज्ञानादि की आराधना में लीन होने का यत्न करना संलीनता तप का 'विविक्तचर्या' नामक चौथा प्रकार है ।। इन चार प्रकार की संलीनताओं में इन्द्रिय, कषाय एवं योग की संलीनता 'भाव संलीनता' है, एवं विविक्त चर्या 'द्रव्य संलीनता' है । शक्ति होते हुए भी उपर्युक्त सर्व प्रकार की संलीनता में यत्न नहीं करना तपाचार में अतिचार रूप है । बज्झो तवो होई - (ये छः प्रकार का) बाह्य तप है । अनशन आदि छ: तप एक से बढ़कर एक हैं । प्रतिज्ञा करके आहार का त्यागरूप अनशन तप फिर भी सहज है, परन्तु आहार की छूट हो और पेट भर सके इतना आहार सामने होते हुए भी एवं भोजन के लिए बैठने के बाद भी भूख से कुछ कम लेना ऐसा, ऊनोदरी तप करना मुश्किल है । उसमें भी अनेक पदार्थ सामने होते हुए भी अमुक द्रव्य लेकर दूसरे पदार्थों का त्याग करना बहुत मुश्किल है । अमुक द्रव्य में भी जो मिष्ट भोजन, रसप्रद भोजन हो, उसका त्याग कर नीरस आहार करने रूप रसत्याग बहुत कठिन है । इन्द्रियों की आसक्ति घटाने के लिए प्रथम चार तप करने से भी शरीर की ममता से मुक्त होने के लिए विविध आसन एवं कष्टदायक लोचादि की जो अनेक क्रियारूप काय-क्लेश तप किया जाता है वह बहुत कठिन है । उससे आगे बढ़कर इन्द्रियों, कषायों एवं मन, वचन, काया के योगों को नियंत्रण में रखनेरूप संलीनता सब से अधिक कठिन है । यह संलीनता तप प्रायश्चित्त आदि अभ्यंतर तप का प्रवेशद्वार है; क्योंकि उसके द्वारा अंतर्मुख बनने के प्रयास का प्रारंभ होता है ।
SR No.006126
Book TitleSutra Samvedana Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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