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नाणंमि दंसणम्मि सूत्र १ - इन्द्रिय संलीनता : खुद को आनंद देनेवाले शब्द, रूप, रस, गंध या स्पर्श में लीन इन्द्रियों को प्रभु के वचनों का सहारा लेकर रोकना अथवा इन्द्रियों के अनुकूल विषय में राग एवं प्रतिकूल विषयों में द्वेष न होने देना बल्कि समभाव रखना ‘इन्द्रियसंलीनता है । ___ यद्यपि संसारी जीवों के लिए सर्वथा इन्द्रियरोध संभव नहीं है, तो भी प्रारंभ में अप्रशस्त मार्ग में सक्रिय इन्द्रियों को प्रशस्त मात्र में ले आना संभव है, एवं उसके बाद वैराग्यादि भावों से आत्मा को भावित कर, शब्दादि विषयों में उदासीन भाव से रहना साधक के लिए संभव एवं सरल बन सकता है ।
२ - कषाय संलीनता : शुभ भावना द्वारा उदय में आए हुए कषायों को निष्फल करना एवं पुनः कषाय उदय में ही न आए, ऐसे चित्त का निर्माण करना, कषाय संलीनता है।
कषाय संलीनता तप की आराधना करने की इच्छावाला साधक सोचता है कि, “इस जगत् में जो भी दुःख है, वह क्रोध, मान, माया, लोभादि कषाय के कारण ही उत्पन्न हुआ हैं एवं जो आंशिक भी सुख या शांति देखने को मिलती है, वह क्षमा, नम्रता, सरलता, संतोष आदि गुण के कारण ही हैं । मुझे भी जीवन में सुख शांति चाहिए, तो कर्म के उदय के समय चाहे जैसा संयोग मिले, उसमें कषाय को स्थान दिए बिना क्षमादि गुणों के विकास के लिए यत्न करना चाहिए, तो ही कुसंस्कार नाश हो सकेंगे, वर्तमान सुधरेगा एवं उज्ज्वल भविष्य का सृजन होगा ।'
३ - योग संलीनता : अशुभ स्थान में जानेवाले मन, वचन, काया के योगों को रोककर उनको शुभ व्यापार में जोड़ना अथवा मोक्षमार्ग की साधना के लिए जिस समय जो उचित हो वैसे कुशल योग में - मोक्षसाधक कार्य में तीनों योगों को प्रयत्नपूर्वक स्थिर करना ‘योग संलीनता' नामक तप है । 45. इन्द्रियसंलीनता - योगादिभिरिन्द्रियैः शब्दादिषु सुन्दरेतरेषु रागद्वेषाकरणमिन्द्रियसंलीनतेति।
- द. वै. हारिभद्रीय वृत्ति 46. योगसंलीनता - सा पुनर्मनोयोगादीनामकुशलानां निरोधः कुशलानामुदीरणमित्येवम् ।
- द. वै. हारिभद्रीय वृत्ति