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सूत्रसंवेदना-३
क्रिया करनेवाले महात्माओं के दर्शन से भद्रिक एवं विवेकी आत्मा के अंतर में क्रियावान एवं क्रिया के प्रति बहुमान प्रकट होता है ।
इसके अतिरिक्त, शरीर के अनुकूल व्यवहार करने की बुरी आदत के कारण, शरीर के अनुकूल सामग्री में राग एवं प्रतिकूल सामग्री में द्वेष हो जाता है, परन्तु कायक्लेश द्वारा जब सहन करने की भावना से विविध क्रिया द्वारा शरीर का ममत्व घटता है, तब राग-द्वेष के भाव से अलग होकर समता की साधना कर सकते हैं ।
ऊपरी दृष्टि से लोच कराने में या कायक्लेश तप की अन्य क्रियाओं में कष्ट एवं पीड़ा दीखती है, तो भी बाल की देखभाल करने के लिए जो पानी वगैरह के जीवों को पीड़ा होती है, जीभ के स्वाद के लिए वनस्पति के जीवों का जो विनाश होता है, उसकी तुलना में यह पीडा कुछ भी नहीं । इस तपमें विषयों
और देहादि के प्रति निर्ममभाव उत्पन्न होने से स्वभावप्राण की रक्षा के साथसाथ अन्य जीवों पर दया का भाव भी रहता है ।
यहाँ यह खास ध्यान में रखना है कि मात्र कष्ट सहना 'कायक्लेश' तप नहीं, परन्तु कर्मक्षय के हेतु से भगवान की आज्ञा समझकर स्वेच्छापूर्वक कष्ट सहन किया जाए, वह 'काय-क्लेश' तप है ।
६. संलीणया य - एवं संलीनता ।
अनर्थकारी प्रवृत्तियों का त्याग करके मोक्षमार्ग के अनुकूल प्रवृत्तियों में स्थिर होना ‘संलीनता' नामक बाय॑ तप है ।
अथवा
इन्द्रिय, कषाय एवं योगों को मोह के मार्ग से मोडकर, मोक्ष मार्ग में स्थिर करना, इन्द्रियादि का सम्यग् प्रकार से रक्षण करना, ‘संलीनता"" नामक तप है। 44.संलीनस्य - संवृत्तस्य भावः संलीनता । - इन्द्रियों, कषाय एवं योगादि उपर जय पाने के लिए
शरीरादि का संगोपन करना वह संलीनता है द्रव्यतः संलीनता विविक्तशयनासनता इत्यर्थः । भावतः संलीनता मनोवाक्कायरूपयोगकषायइन्द्रियसंवृत्ततानाम् ।
- आचार पदीप