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नाणंमि दंसणम्मि सूत्र करके अधिक से अधिक प्रयत्न कर साधु एवं श्रावक को विगैई का त्याग कर अवश्य रस त्याग करना चाहिए ।
उपर्युक्त चारों ही तप आहार के नियंत्रण के लिए हैं । आहार के नियंत्रण से रसना पर विजय प्राप्त होती है । उससे इन्द्रियों पर भी विजय प्राप्त कर सकते हैं । इन्द्रियों को जीतकर कषायों पर विजय प्राप्त करके एवं परिणाम स्वरूप कर्म का क्षय एवं उससे मोक्ष की प्राप्ति होती है । इस प्रकार चारों तप मोक्ष के साथ संलग्न है ।
५. काय-किलेसो - काया को कष्ट देना (काया से सहन करना ।)
जिससे काया को कष्ट हो, वैसी कर्म क्षय के लिए की जानेवाली प्रवृत्ति को 'काय-क्लेश' तप कहते हैं । काया को सहनशील बनाने के लिए भगवान की
आज्ञानुसार वीरासन, पद्मासन आदि आसनों का सेवन करना, आतापना लेना, केश का लोच करना, खुले पैर से विहार करना, जिनमुद्रा आदि मुद्रा में रहकर विविध प्रकार की क्रियाएँ करना, क्षुधा-पिपासा, रोग आदि परिषहों को शांति से समभाव सहित सहना, काय-क्लेश तप है ।
शरीर के ममत्व से मुक्त होना एवं मोक्ष मार्ग में विशेष प्रवृत्त होना, यह इस तप का हेतु है । इसलिए शरीर को स्वस्थ रखने एवं स्नायुओं को मजबूत बनाने के लिए जो योगासन वगैरह किए जाते हैं, उनका समावेश इस तप में नहीं हो सकता। इस तप में तो, कर्मोदय से किसी भी प्रकार की पीड़ा या आपत्ति आए तो भी समभाव (समाधि) टिकाए रखना, कर्मनिर्जरा की भावना से काया को कसने एवं कर्म के उदय के बिना भी कष्ट पैदा करके आनंदपूर्वक सहन करने का हेतु समाया है ।
इस तप का बारबार सेवन करने से अनेक तरह के लाभ होते हैं । मुख्यतया तो काया नियंत्रण में रहती है, काया के नियंत्रण से मन अपने आप नियंत्रण में आ जाता है और काया एवं मन के नियंत्रण से प्रत्येक क्रिया उपयोगपूर्वक होती है । इस से अन्य को भी शुभ भाव उत्पन्न हो सकता है, क्योंकि उपयोगपूर्वक