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सूत्रसंवेदना-३
४. रसञ्चाओ - रस त्याग - विगई का त्याग रसयुक्त आहार का त्याग करना ‘रसत्याग' नाम का तप है । जिससे रसना अर्थात् जीभ को संतुष्टि हो, उसकी आसक्ति का पोषण हो, वैसे आहार को रसवाला आहार कहते हैं । शास्त्रकारों ने रस के रूप में मुख्यतः दूध, दही, घी, तेल, गुड़ एवं कडाविगई (पकवान) इन छ: विगइयों का उल्लेख किया है । इन छ विगइयों का संपूर्ण त्याग करना अथवा एक-दो-तीन आदि का त्याग करना ‘रस-त्याग42 नामक तप है । इसके उपरांत मदिरा, मांस, मधु एवं मक्खन ये चार भी विगई हैं, जो महाविगई के नाम से जाने जाते हैं । प्रत्येक साधक को उसका सदा के लिए त्याग करना चाहिए ।
विगइयाँ जीभ को खुब अनुकूल लगनेवाली वस्तुएँ हैं, विगइयों के स्पर्श होने से या कभी तो मात्र उनको देखने से ही जीभ में पानी आ जाता है । बेकाबू बनी यह रसना कईबार विवेकहीन बना देती है एवं अधिक आहार करवाकर पेट एवं मन को बिगाड़ देती है । इसके अतिरिक्त विगइयों का सेवन करने से शरीर एवं इन्द्रियाँ पुष्ट होती हैं, जिसके परिणाम स्वरूप शरीर, मन एवं पाँचों इन्द्रियाँ अपने अपने विषय में विशेष प्रकार की प्रवृत्ति करती हैं । अनादि के संस्कार के कारण वैषयिक प्रवृत्ति जीव में रागादि भाव एवं विकार उत्पन्न करती है । विकृत हुई इन्द्रियाँ एवं मन जीव को कर्म बंध करवाकर दुर्गति में ले जाते हैं । इसलिए शास्त्रकार तो विगई को ही विकृति कहते हैं । वेश्या का सहवास जिस प्रकार जीवन को चौपट करता है, वैसे ही विगई का सहवास भी साधक के जीवन को बरबाद करता है । दुर्गति से डरनेवाला जो साधु विगई अथवा विगई से बने हुए पदार्थों को खाता है, उसे विकृति करवाने के स्वभाववाली विगई जबरदस्ती दुर्गति में ले जाती है ।43 इन सब बातों का विशेष चिंतन 42 रसाः क्षीरादयस्तत्परित्यागस्तपः ।
रसानां - क्षीरदध्यादीनां विकारहेतुतया विकृतिशब्दवाच्यानां मद्यमांसमधुनवनीतानां ग्धदधिधृत-तैल-गुडावाह्यादीनां च यथाशाक्ति सर्वेषां कियतां वा सर्वदा वर्षषण्मासीचतुर्मास्याद्यवधि वा वर्जनम् ।
- आचार प्रदीप 43 विगई विगईभीओ विगइगयं जो उ भुंजए साहू । विगई विगइसहावा, विगई विगई बला नेइ ।।१।।
- पच्चक्खाण भाष्य गा. ४० निशिथभाष्य गा. १६१२