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________________ नाणंमि दंसणम्मि सूत्र ८१ ३. वित्तीसंखेवणं - वृत्ति संक्षेप जिससे जीवन टिके, उसे वृत्ति कहते हैं । उसमें भोजन, जेल वगैरह वस्तुओं का समावेश होता है । इस वृत्ति का द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से एवं भाव से संक्षेपसंकोच करना 'वृत्ति संक्षेप 40 नाम का तीसरे प्रकार का बाह्य तप है । ऊनोदरी व्रत करनेवाला साधक सोचता है कि, “जितने द्रव्य अधिक लूँगा, उतने में रुचि - अरुचि के परिणाम रूप रति- अरति तथा राग द्वेष की संभावना है । इसलिए यथा सम्भव कम द्रव्यों से आहार करूँ, जिससे रागादि से होनेवाली अनर्गल इच्छाओं के उपर अंकुश हो सके ।" इस प्रकार सोच कर जीव अपने खाने पीने की वस्तुओं का संक्षेप करे, तो वह वृत्ति संक्षेप तप होता है। I सर्वविरतिधर आत्माएँ उपकरण एवं आहार- पानी के विषय में, द्रव्य-क्षेत्र - काल एवं भाव के संबंधी जो नियम करते हैं या इतने ही द्रव्य, इतनी ही क्षेत्र में से, इतने काल में एवं वह भी इस प्रकार के भाववाला दाता दे तो ही ग्रहण करूँगा, उसके सिवाय ग्रहण नहीं करूँगा, वह भी वृत्ति संक्षेप तप है । जैसे भगवान महावीरस्वामी ने अभिग्रह ग्रहण किया कि - मुंडित मस्तकवाली, देहली में खड़ी हुई, हाथ-पैर में बेडी वाली, आँख में अश्रुजलवाली, तीन दिन की उपवासी, दासीपने को प्राप्त हुई कोई राजकन्या, सूप के कोने में रहे हुए आहार को भिक्षा का समय बीत जाने के बाद दे, तो ही मैं ग्रहण करूँगा । यह अभिग्रह वृत्ति संक्षेप नाम के तप का ही एक प्रकार है । मुनि भगवंतों को द्रव्यादि संबंधी नित्य नए नए अभिग्रह लेने का विधान है । जीत सूत्र नाम के आगम में तो यहां तक कहा है कि अगर मुनि नित्य नए-नए अभिग्रह धारण न करें, तो उसको प्रायश्चित्त 41 आता है । 40. वृत्तिसंक्षेपो गोचराभिग्रहरूपो वृत्तिराजीविका स्वेच्छाभोगोपभोगोपयोगिवस्तुविषया तस्या हासः परिमाणेन संक्षेपः । वर्तते ह्यनया वृत्तिः, भिक्षाशनजलादिका तस्याः संक्षेपणं कार्यं, द्रव्याद्यभिग्रहाञ्चितैः । - आचारप्रदीप 41. पइदियहं चिय नव नवमभिग्गहं चिन्तयंति मुणिवसहा । जीअंमि जओ भणियं, पच्छित्तमभिग्गहाभावे ।। १ ।।
SR No.006126
Book TitleSutra Samvedana Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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