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सर्वप्रथम उपकार तो गणधर भगवंतों का जिन्होंने हमारे जैसे अल्पमति जीवों के लिए गूढ रहस्यों से भरे सूत्र बनाये। उसके बाद उपकार है पूर्वाचार्यों का जिन्होंने इन सूत्रों के रहस्य तक पहुँचने के लिए उनके उपर अनेक टीका ग्रंथ बनाये। ये हुई परोक्ष उपकार की बात। प्रत्यक्ष उपकार में सर्व प्रथम उपकार है धर्मपिता तुल्य (संसारी पक्ष में मेरे मामा) वर्धमान तपोनिधि प.पू.आचार्यदेव श्रीमद् विजय गुणयशसूरीश्वरजी महाराज का जिन्होंने मुझे धर्ममार्ग पर आरूढ़ किया एवं व्याख्यान वाचस्पति प.पू. आचार्यदेव श्रीमद् विजय रामचंद्रसूरीश्वरजी महाराज से साक्षात्कार करवाया। उनका सुयोग मिलने पर मेरे जीवन में वैराग्य का अंकुर फूटा
और संसार को त्याग कर मैं संयम के लिए दृढ़ बनी। यहाँ तक पहुँचाने के लिए उन महापुरुषों का उपकार तो मैं कभी भी नहीं भूल सकती।
पत्थर पर टांका मारकर शिल्पी जिस प्रकार अनेक स्थापत्य तैयार करता है, वैसे ही इशारे के औजार से मेरे जीवन को घड़ने का कार्य मेरे परमोपकारी गुरुदेव प.पू.चंद्राननाश्रीजी म.सा.ने किया। उन्होंने संयम जीवन जीना तो सिखाया ही, परन्तु साथ में संयम को समुज्ज्वल बनाने के लिए सतत शास्त्राभ्यास करने की प्रेरणा एवं सुविधा भी दी। आज जीवन में यदि कुछ थोड़ा भी अच्छा देखने को मिलता है तो उनकी प्रेरणारूप सिंचन का फल है। उनके इस उपकार का बदला तो मैं कभी भी नहीं चुका पाऊँगी।
इस सूत्र की गहराई तक पहुँचने में एवं शंकाओं का समाधान करने में मुझे पंडितवर्य सु.श्रा.प्रवीणभाई मोता की खूब सहायता प्राप्त हुई है। हर अवसर पर श्रुत में सहायता करनेवाले उनके उपकार भी कभी नहीं बिसरा सकती।
इस भाग का लेखन करीब तीन साल से तैयार हो गया था, परन्तु उसमें चिंतन करते हुए उठे हुए अनेक प्रश्न अनुत्तर रहे। अनेक महात्माओं से प्राप्त समाधानों का मिलान करने में विलंब होता गया । बीच में 'वंदित्तु' सूत्र का विवरण सहित ‘सूत्र संवेदना' श्रेणी का चौथा भाग भी प्रकाशित