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सूत्र संवेदना - २
अरिहंतों की आत्मा भी अन्य जीवों की तरह अनादिकाल से संसार में ही भवभ्रमण करती है, इसलिए तीर्थंकर होने से पहले वे भी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव एवं भव के निमित्तों के अनुसार कर्मों के साथ संबंधवाले बनते हैं एवं कर्मों के साथ संबंधित होने के कारण उनके जन्म, मरण, जरा आदि रूप संसार का विस्तार होता है, परन्तु जैसे-जैसे उनकी समझ बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे वे प्रयत्न करके आत्मा को कर्म के संबंध से मुक्त करते हैं । कर्म संबंध टूटने के कारण उनको जन्म, मरण आदि के चक्कर से मुक्ति मिलती है एवं वे आत्मा के अनंत आनंद को प्राप्त कर सकते हैं ।
यह पद बोलते ही भगवान की पूर्वापर अवस्था याद आनी चाहिए एवं ऐसा महसूस होना चाहिए कि भगवान भी पहले तो हमारे जैसे ही जन्मादि प्रपंच करनेवाले थे, परन्तु प्रयत्न करके वे भगवान बन गए और हम तो यहीं रह गए । हम भी यदि प्रयत्न करें तो अवश्य ही उनके जैसी निर्मल अवस्था प्राप्त कर सकते हैं क्योंकि हरेक आत्मा के लिए नियम है कि वे जैसे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव एवं भव के निमित्त को पाती है, वैसे कर्मों को बाँधती हैं । स्वयं तीर्थंकर की आत्मा की भी यही स्थिति होती है, तो हमारे जैसे सामान्य जन के लिए तो सवाल ही कहाँ है ? इसलिए यदि ऐसे कर्मबंध से अटकना हो, तो यथासंभव प्रयत्न से वैसे-वैसे द्रव्यादि के निमित्तों को निष्फल करने का प्रयत्न करना चाहिए क्योंकि द्रव्यादि के निमित्तों की असर से अगर अटके, मे ही कर्मबंध से अटक सकते हैं एवं कर्मबंध से अटके, तो ही इस संसार के परिभ्रमण से मुक्त हो सकते हैं ।
यह पद बोलते हुए आदि में, जन्मादि प्रपंच को करनेवाले परमात्मा को याद करके नमस्कार करते हुए प्रभु के पास प्रार्थना करनी चाहिए
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“हे नाथ !' भूतकाल में आप मेरे जैसे ही थे और आज आप कहाँ पहुँच गए ? हे प्रभु ! आपको किया हुआ मेरा यह नमस्कार मुझे भी उस · भाव तक ले जाने में सहायक बनें ।”