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________________ नमोत्थुणं सूत्र ७५ 20आइगराणं (नमोऽत्थु णं) - तीर्थ की आदि करनेवाले अथवा आदि में अर्थात् पूर्व में (जन्मादि प्रपंच को) करने के स्वभाववाले21 ऐसे अरिहंत भगवंतों को (मेरा नमस्कार हो ।) ‘आइगराणं' अर्थात् प्रारंभ करनेवाले । सर्व प्रकार की नीति एवं श्रुत धर्म का सबसे पहले उपदेश देनेवाले परमात्मा हैं, इसलिए उन्हें आदि करनेवाला बताया है। उनको मैं नमस्कार करता हूँ। यद्यपि श्रुतधर्म रूप द्वादशांगी अर्थ की अपेक्षा से शाश्वत है, फिर भी शब्द की अपेक्षा से अलग-अलग तीर्थंकर के शासन में वह भिन्न-भिन्न होती है । हरेक तीर्थंकर के शासन में शब्द से भिन्न-भिन्न प्रकार से द्वादशांगी की रचना होती है एवं उस रचना में परमात्मा की त्रिपदी कारणभूत होने से परमात्मा को 'श्रुतधर्म की आदि करनेवाले' कहते हैं । यह अर्थ कलिकाल सर्वज्ञ पू. हेमचन्द्राचार्य भगवंत ने योगशास्त्र में किया है । अथवा ललित विस्तरा ग्रंथ के अनुसार ऐसा अर्थ होता है - आदि में अर्थात् मोक्ष की अपेक्षा से आदि में = संसार में । अनादिकाल से अरिहंत भगवंत भी संसारी जीवों की तरह कर्मबंध एवं जन्म, मरण, शरीर, सुख-दुःख की अनुभूति आदि करने के स्वभाववाले होते हैं । 20.सांख्यदर्शन की मान्यता है कि, जगत् में दो तत्त्व है पुरुष और प्रकृति उनमें पुरुष याने आत्मा चेतन है एवं प्रकृति जड है । अनादिकाल से अनंतकाल तक कुटस्थ नित्य ऐसा आत्मा सदा शुद्ध रहता है अर्थात् उसमें कोई परिवर्तन नहीं आता। प्रकृति सत्त्व-रजस्तमस् स्वरूप त्रिगुणात्मक होने से उसमें से दूसरे २८ तत्त्वों उत्पन्न होते है । आत्मा तो सदा शुद्ध होने से उसमें कभी कर्तुत्व नहीं होता याने वह कभी कर्ता नहीं बनता (कुछ करता नहीं)। सांख्यदर्शन की ऐसी मान्यता का खंडन आईगराणं' पद करता है। यह पद सूचित करता है कि जन्म-मरण शरीर सुख-दुःख आदि करने का स्वभाव आत्मा का है। 21.इहादौ करणशीला आदिकराः अनादावपि भवे तदा तदा तत्तत्काण्वादिसम्बन्धयोग्यतया विश्वस्यात्मादिगामिनो जन्मादिप्रपञ्चस्येति हृदयम् । - ललित विस्तरा
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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