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सूत्र संवेदना - २
६. प्रयत्न : चंचल मन को स्थिर करना अत्यंत कठिन कार्य है । मनोयोग आदि को स्थिर करने के लिए विशेष पुरुषार्थ की आवश्यकता पड़ती है । परमात्मा भी भिन्न-भिन्न विषयों की ओर दौड़ते हुए अपने मन को रोककर उसे एक निश्चित पदार्थ में स्थिर करते हैं । इस प्रकार उत्तरोत्तर विशिष्ट एकाग्रता को साधकर वे एक रात्रि की महान प्रतिमा को वहन करते हैं । शुक्लध्यान प्राप्त करके, क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होकर केवलज्ञान प्राप्त करते हैं । मन, वचन, काया के योगों को रोककर शैलेशीकरण 19 करके अंत में सब कर्मों का क्षय कर मुक्त बनते हैं, ऐसे विशिष्ट प्रयत्नवाले भगवान हैं ।
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यह पद बोलते हुए ऐसे रूप, ऐश्वर्य आदि गुणों से युक्त अरिहंत परमात्मा को हृदयस्थ करके नमस्कार करते हुए प्रार्थना करनी चाहिए -
“हे नाथ ! दुनिया की ऋद्धि-समृद्धि एवं रूप से प्रभावित होनेवाला मैं आपकी इस समृद्धि का वर्णन सुनकर, समझकर भी अब तक उससे क्यों आकर्षित नहीं हुआ ? आप की लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए क्यों मेहनत भी नहीं करता ? श्रीयुक्त हे स्वामी ! आपको किया हुआ यह नमस्कार मुझे आप के जैसा स्वरूप प्रदान करें ।”
अरिहंत एवं भगवंत स्तुति करने योग्य हैं, यह जाना । तब प्रश्न उठता है कि, ये भगवान स्तवन के योग्य क्यों हैं ? उसका सामान्य एवं विशेष कारण (हेतु) अब 'प्रधान - साधारण - असाधरण हेतु संपदा' नाम की दूसरी संपदा में बताते हैं । इस संपदा को योगशास्त्रकार वगैरह 'सामान्य हेतु ' संपदा कहते हैं ।
19. शैलेशीकरण : चौदहवें गुणस्थानक में आत्म प्रदेशों को मेरुपर्वत जैसा स्थिर - निष्प्रकंप करने की प्रक्रिया को शैलेशीकरण कहते हैं।
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