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नमोत्थुणं सूत्र विशिष्ट पुद्गल परमाणु से बना हुआ परमात्मा का यह रूप किसी के काम-विकार का कारण नहीं बनता, परन्तु यह रूप, देखनेवाले को शांति एवं प्रशमभाव की अनुभूति करवाता है । ___३. यश : बाह्य शत्रु को जीतने के बावजुद भी अंतरंग राग, द्वेषादि शत्रुओं को न जीता जाए, तो अपयश की संभावना रहती है, इसलिए परमात्मा ने बाह्य शत्रुओं की उपेक्षा करके धर्मध्यान के संग्राम द्वारा अंतरंग राग, द्वेषादि अति दुर्जय शत्रुओं के विनाश का प्रयत्न किया । उसके लिए किसी भी प्रकार की दीनता या विह्वलता के बिना परिषह एवं उपसर्ग को सहन करके उन्होंने अंतरंग शत्रुओं को जीतकर तीनों लोक को आनंद देनेवाला तथा सतत रहनेवाला विशाल एवं निर्मल यश प्राप्त किया है।
४. लक्ष्मी : घातीकर्मों के नाश से परमात्मा को केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिकभाव का चारित्र, अनंतवीर्य, अतिशयित आत्मिक सुखरूप श्रेष्ठ अंतरंग लक्ष्मी एवं तीर्थंकर नामकर्म के उदय से ३४ अतिशयरूप श्रेष्ठ बाह्य लक्ष्मी (रिद्धि-सिद्धि) प्राप्त हुई होती है ।
५. धर्म : क्षायिक भाव के सम्यग्ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र रूप धर्म, परम श्रेष्ठ कोटि के दान, शील, तप एवं भावरूप धर्म, साश्रवभाव15 एवं निराश्रवभाव रूप16 धर्म तथा समता7 एवं वृत्ति संक्षय18 आदि महान योग की परमात्मा को प्राप्ति हुई होती है । 15. साश्रव धर्म : परमात्मा का पृथ्वीतल पर विचरण, उपदेश-प्रदान आदि प्रवृत्ति को साश्रव धर्म
कहते हैं। 16. निराश्रव धर्म : मोह के विकारों से अलिप्त रहकर आत्मभाव में रहने को निराश्रव धर्म
कहते हैं। 17. समता : जगत के पदार्थ जैसे हैं, वैसे हैं । न अच्छे, न बुरे । ऐसा होने के बावजूद भी अज्ञानी
जीव उन्हें अच्छे बुरे तरीके से देखते हैं । जगत्वर्ती सब पदार्थों में अच्छे-बुरेपन की या इष्ट___ अनिष्ट की बुद्धि का त्याग करके, सर्व द्रव्यों के प्रति समान वृत्ति धारण करना समता है । 18. वृत्ति संक्षय : मन में उत्पन्न होनेवाले संकल्पों, विकल्पों एवं शरीर द्वारा होनेवाले स्पंदनों का
सर्वथा त्याग करना अर्थात् वे फिर से कभी उत्पन्न ही न हों, उस तरीके से उनका निरोध करना वृत्ति संक्षय नाम का सर्वश्रेष्ठ योग है ।