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नमोत्थुणं सूत्र इस पद द्वारा भगवान को जन्मादि का एवं कर्मसंयोग का कर्ता कहा है। सर्व संसारी जीव ऐसा करते हैं, इसी कारण से यह साधारण धर्म कहलाता है । पूर्व में अपने जैसे ही अशुद्ध स्वरूपवाले प्रभु ने भी साधना मार्ग पर आगे बढने का प्रयत्न किया, तो वे परम शुद्ध बन सकें । इस वास्तविकता का ख्याल साधक को साधना में उत्साहित करता है । यदि परमात्मा पहले से ही शुद्ध होते, तो जिन्होंने कुछ भी नहीं किया बसे प्रभु, साधक के लिए आदर्श के रूप में स्तुति करने योग्य भी न होते, परन्तु प्रभु साधना करने द्वारा शुद्ध बने हैं, इसलिए उनकी स्तुति करने योग्य है । इस तरह इस पद द्वारा स्तुति का साधारण कारण बताया है।
22तित्थयराणं (नमोऽत्थु णं) - तीर्थ को स्थापित करनेवाले ऐसे अरिहंत भगवंतों को (मेरा नमस्कार हो।)
भयंकर कोटि के संसार से तारनेवाले को तीर्थ23 कहते हैं एवं तीर्थ की स्थापना करनेवाले को तीर्थंकर कहते हैं ।
तीर्थ की स्थापना करने के कारण ही वे परमात्मा तीर्थंकर कहलाते हैं ।
22.इस पद से आगम को प्रधान मानने वाले आगम धार्मिक का मत अमान्य होता है । आगम
धार्मिकों का मत यह है कि - धर्म-अधर्म आदि अतीन्द्रिय भाव केवलज्ञान हुए बिना दीखते नहीं एवं केवलज्ञान सर्व कर्म के नाश के बिना होता नहीं । सर्व कर्मों का क्षय होने से केवली आत्मा का तुरंत ही मोक्ष हो जाता है । इसलिए धर्म तीर्थ की स्थापना वे नहीं कर सकते, इसलिए वे मानते हैं कि धर्म को बतानेवाले जो वेद वाक्य हैं, वे किसी पुरुष रचित नहीं है, परन्तु अपौरूषेय, नित्य निर्दोष हैं । जो योगी पुरुष योग की साधना करते हैं, उनको ये वेद वाक्य सुनाई देते हैं और समझ में आते हैं एवं वे योगी जगत के समक्ष इन वेद के वाक्यों को प्रस्तुत करते हैं । इस प्रकार धर्मादि की व्यवस्था चलती है, इसलिए इन वचनों का कर्ता कोई स्वतंत्र पुरूष नहीं अर्थात् तीर्थ को करनेवाला कोई नहीं है। 'भगवान तीर्थ की स्थापना करते हैं' ऐसा कहने से इस मत को अमान्य किया है क्योंकि धर्म, अधर्म आदि अतीन्द्रिय पदार्थ का ज्ञान घातिकर्म के नाश से प्रकट होनेवाले केवलज्ञान से होता है एवं केवलज्ञान होने के बाद भी अघाति ऐसे आयुष्य, नाम, गोत्र, वेदनीय कर्म बाकी रहते हैं। ___ इस कर्म के कारण परमात्मा तीर्थ की स्थापना, उपदेश आदि की भी प्रवृत्ति करते हैं । 23.तीर्थ पद की विशेष व्याख्या सूत्र संवेदना भा. १ - लोगस्स सूत्र में देखें ।