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________________ सूत्र संवेदना - २ नमोऽत्थु णं बोलते हुए हमें सामर्थ्य योग के नमस्कार की भावनापूर्वक इच्छायोग का नमस्कार करना चाहिए । इच्छायोग की भावपूर्वक माँग ही उच्चकोटि के भाव नमस्कार में विघ्न करनेवाले कर्मों का नाश करवाकर एक दिव्य एवं श्रेष्ठ भाव नमस्कार की प्राप्ति का कारण बनती है । इसलिए श्रेष्ठ फल की प्राप्ति की इच्छावाले साधक को इस प्रकार प्रार्थना करनी योग्य है । 'णं' ये मात्र वाक्य की शोभा के लिए प्रयोग किया हुआ एक शब्द है । जिस प्रकार गुजराती में कड़ी के अंत में रे... लोल... वगैरह शब्दों का प्रयोग होता है, वैसे ही ‘णं' वाक्य का अलंकार है । 'नमोऽत्थु णं' का संबंध आगे के प्रत्येक पद के साथ है । यह शब्द बोलते हुए निम्नलिखित विशेषण युक्त अरिहंत भगवंतों को नजर के समक्ष लाकर, मस्तक झुकाकर उनके सामने प्रार्थना करते हुए सोचना चाहिए, “हे नाथ ! मैं पूर्णकोटि के भावों से युक्त नमस्कार करने में तो आज असमर्थ हूँ। तो भी अल्प भावों से युक्त किया हुआ मेरा यह नमस्कार सर्वश्रेष्ठ भाव नमस्कार का कारण बनें ।” 10अरिहंताणं (नमोऽत्थुणं) - अरिहंतों11 को (नमस्कार हो) । 'अरिहंत' शब्द में अरि=शत्रु एवं हंत हनन करनेवाला; अतः रागादि अंतरंग शत्रुओं का जिन्होंने नाश किया है, उन्हें अरिहंत कहते हैं । इसके अलावा दो पाठांतर भी मिलते हैं, जिससे 'अरहंताणं' अर्थात् श्रेष्ठ गुणसंपत्ति के स्वामी होने से देव एवं देवेन्द्रों से भी पूजने योग्य एवं 10. अरिहंत का विशेष स्वरूप ‘नवकार मंत्र' के प्रथम पद के अर्थ में देख लें । कहीं-कहीं ‘अरिहंताणं' के बदले अरहंताणं या अरुहंताणं का पाठ है । वह हरेक पाठ भी अरिहंत पद का वाचक है, इसलिए संगत है। 11. यहाँ अरिहंताणं वगैरह पद बहुवचन में है क्योंकि बहुवचनांत पद बोलते हुए एक साथ बहुत से अरिहंत बुद्धि में उपस्थित हो जाते हैं । ऐसी उपस्थिति साधक आत्मा के उत्कृष्ट भाव का कारण बन सकती है । इसके अलावा जो आत्म-अद्वैतवादी ऐसा मानते हैं कि इस जगत में एक ही आत्म द्रव्य है, और एक ही आत्मा अलग अलग शरीर में भिन्न-भिन्न रूप से दिखाई देती है । जिस प्रकार चन्द्रमा एक होते हुए भी हिलते पानी में अनेकरूप से दिखता है । उनकी यह मान्यता बहुवचन के प्रयोग से गलत साबित होती है। क्योंकि आत्मा अनंत हैं।
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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