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________________ सूत्र संवेदना - २ आत्मा के लिए ये भाव अनर्थकारी हैं, ऐसा मानकर भावपूर्वक उसका त्याग कर सकते हैं तथा क्षमा, संतोष आदि के सूक्ष्म स्वरूप को समझकर यह धर्म ही आत्मा को सुख देनेवाला है, ऐसा मानकर उनका स्वीकार भी कर सकते हैं। प्रतिपत्तिपूजा की पराकाष्ठा चौदहवें गुणस्थानक में सर्वसंवरभाव की सामायिक आने पर होती है, क्योंकि तब ही सर्वथा आश्रव का त्याग करके जीव सर्वसंवर को पा सकता है । संक्षेप में 'नमो' अर्थात् नमस्कार करने योग्य भगवान में रहे हुए उत्तम गुणों को प्राप्त करने का मन-वचन-काया से किया हुआ प्रयत्न अथवा 'नमो' अर्थात् इन चार प्रकार की पूजा में से किसी भी प्रकार की पूजा के लिए किया गया प्रयत्न । अत्थु : हो, (अरिहंत भगवान को मेरा नमस्कार हो) । 'अत्थु = हो' यह शब्द आशंसा या प्रार्थना के अर्थ में प्रयुक्त है । यहाँ भाव नमस्कार की प्रार्थना की है । यहाँ, करेमि = करता हूँ, शब्द का प्रयोग न करके ‘अस्तु' का प्रयोग किया है क्योंकि, 'अस्तु' शब्द के प्रयोग द्वारा परमात्मा को प्रार्थना करते हुए एक प्रकार की आशंसा व्यक्त की जाती है कि, “हे भगवंत! आपकी आज्ञा के पूर्ण पालन स्वरूप प्रतिपत्ति पूजा करने का तो आज मेरा सामर्थ्य नहीं है फिर भी, हे प्रभु ! नम्र भाव से किया हुआ मेरा यह नमस्कार सर्वश्रेष्ठ भाव नमस्कार का कारण बनें ।" इस प्रकार 'अस्तु' शब्द द्वारा सर्वश्रेष्ठ कोटि के नमस्कार करने की भावना व्यक्त की जाती है । जिज्ञासा : भगवान की आज्ञा के पालनरूप भाव नमस्कार की प्रार्थना सामान्यजन के लिए तो योग्य है, परन्तु इस सूत्र के रचयिता गणधर भगवंतों के लिए क्या ऐसी आशंसा योग्य है ? वे तो प्रभु आज्ञा के पालनरूप भाव पूजा कर ही रहे हैं ।
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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