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नमोत्थुणं सूत्र
३. स्तोत्रपूजा : अपनी आत्मा के दोषों की निंदा, परमात्मा के गुणों की स्तवना या प्रार्थना जिन श्लोक आदि से की जाती है, वैसे अर्थ गंभीर स्तोत्र, स्तुति, छंद, श्लोक आदि द्वारा परमात्मा की जो स्तवन की जाती है, वह स्तोत्र पूजा कहलाती है ।
प्रतिपत्ति अर्थात् स्वीकार - पालन
४. प्रतिपत्तिपूजा :आज्ञा का पालन करना, वह प्रतिपत्ति पूजा है
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भगवान की
सब जीवों को सदाकाल के लिए सुखी करने के लिए सर्वज्ञ भगवंतों नें शास्त्रों में अनेक प्रकार की आज्ञाओं का फरमान किया है । कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ने वीतराग स्तोत्र में इन सब आज्ञाओं का सारांश एक ही वाक्य में दिया है " आश्रवः सर्वथा हेय उपादेयश्च संवरः " - आश्रव' का सर्वथा त्याग करो एवं संवर' भाव स्वीकार करो ।
भगवान की यह आज्ञा सब जीव नहीं समझ सकते, परन्तु मोह के पाश में से जो आंशिक भी मुक्त हुए हैं एवं अपुनर्बंधक अवस्था को जिन्होंने प्राप्त किया है, वैसे जीव स्थूल से यह आज्ञा समझ सकते हैं । परिणामतः आश्रवरूप हिंसादि पाप प्रवृत्तियों को छोडने योग्य जानकर, वे उनका आंशिक त्याग भी कर सकते हैं, तथा संवरभूत क्षमादि धर्मों को आदरणीय समझकर उनका स्वीकार भी कर सकते हैं ।
व्यवहारनय' से प्रतिपत्ति पूजा का प्रारंभ अपुनर्बंधक अवस्था से होता है। जब कि निश्चयनय से सम्यग्दृष्टि विरतिवंत ही प्रतिपत्ति पूजा कर सकतें हैं, क्योंकि वे सूक्ष्म तरीके से हिंसादि पापों को जानते हैं एवं अपनी 5. जिससे आत्मा कर्म के साथ जुड़ता है, वैसी हिंसा, झूठ आदि पाप आश्रव है ।
6. जिससे आते हुए कर्म रूकते हैं वैसे क्षमा, संयमादि भाव संवर हैं ।
7. व्यवहारनयः स्थूल दृष्टि से पदार्थ को देखता है, इसलिए बाह्य से भी हिंसादि को छोड़नेवाले में विरति के परिणाम को स्वीकार करता है । इसमें बाह्य क्रिया का प्राधान्य है
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8. निश्चयनय सूक्ष्म दृष्टि से पदार्थ को देखता है, इसलिए वह तो विवेक पूर्वक के त्याग को ही विरि मानता है, इससे वह पाँचवें गुणस्थान में ही विरति मानता है । यह नय आत्मा के अध्यवसायों को प्राधान्य देता है ।