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नमोत्थुणं सूत्र गूंथे हैं, उनको परमोपकारी सूरिपुरंदर पू.आ.श्री हरिभद्रसूरीजी महाराज ने “श्री ललितविस्तरा" नाम के ग्रन्थ में स्पष्ट किये हैं । इस ग्रन्थ के आधार पर ही आज हम इस महान सूत्र का यत्किंचित् भी अर्थ समझ सकते हैं ।
अपने जैसे बाल जीवों की बात तो दूर रही, महाबुद्धिशाली श्री सिद्धर्षिगणी जिन्होंने 'उपमितिभवप्रपंचा', जैसी दुनियाँ की श्रेष्ठ रूपक कथा लिखी है, वे भी इस ललितविस्तरा ग्रन्थ से धर्म में स्थिर हुए थे । साधना जीवन के प्रारंभ में वे बौद्धमत से प्रभावित हुए थे । इक्कीस बार जैन एवं बौद्ध धर्म के बीच झूला खाते रहे । कई बार उनको जैनधर्म सच्चा लगा
और कई बार बौद्ध धर्म सच्चा लगा; परन्तु जब उन्होंने “ललितविस्तरा" में वर्णित श्री अरिहन्त परमात्मा का स्वरूप पढ़ा, तभी से वे जैनशासन के प्रति अडिग श्रद्धावाले बन गए ।
ललितविस्तरा ग्रंथ का गुजराती भाषांतर और सुंदर विवेचन वर्धमान तपोनिधि आचार्यदेव श्रीमद् विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी महाराज ने 'परमतेज' नाम के पुस्तक में किया है । विशेष जानकारी के लिए जिज्ञासु जन वह पुस्तक देखें । यहाँ तो सूत्र बोलते वक्त जितने भाव उपस्थित हो सके, उतने ही अर्थ और उनकी संवेदना व्यक्त की गई है ।
विचारक जीवों की कोई प्रवृत्ति बेबुनियाद नहीं होती । इसलिए नमस्कार करने से पहले भी उन्हें जिज्ञासा रहती है कि जगत में नमस्कार करने योग्य कौन है और क्यों है ? इस सूत्र में अत्यंत बुद्धिगम्य तरीके से बताया गया है कि, अरिहंत परमात्मा ही नमस्कार करने योग्य हैं और उनके अलगअलग ३३ विशेषणों द्वारा वे क्यों नमस्कार करने योग्य हैं ? ।
इस सूत्र में अरिहंत परमात्मा का निगोद अवस्था से लेकर मोक्ष तक का वर्णन है । मुक्ति की मंजिल तक की सुदीर्घ यात्रा में अपने विशिष्ट तथाभव्यत्व के कारण वे प्रत्येक स्थान में कैसे होते हैं ? भव्य जीवों के ऊपर किस तरह उपकार करते हैं ? इत्यादि के साथ प्रत्येक भव में तथा अंतिम भव में उनके बाह्य तथा अभ्यंतर स्वरूप का रोचक वर्णन है ।