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प्रास्ताविक साधनापथ का एक महत्त्वपूर्ण सोपान सूत्र संवेदना की यात्रा आगे बढ़ रही है । संवेदन 'अर्थात् भाव। जैन धर्म में भावपूर्वक क्रिया का बहुत महत्त्व है। भाव तो क्रिया का प्राण है। जीवनभर हम कितनी ही क्रियाएँ करते हैं; परन्तु उनका फल हमें नहीं मिलता कारण यह है कि, हमारी सभी क्रियाएँ भाव से भरी नहीं होती।
पू. विदुषी साध्वी श्री प्रशमिताश्रीजी ने संवेदन की बात पकड़कर धर्म क्रियाओं के हार्द को स्पर्श किया एवं उन्होंने सूत्रों को संवेदना से तरंगित कर दिया। अर्थ बिना संवेदन नहीं, ये बात उन्होंने बराबर पकड़ ली। उनके पास
आने वाले विशाल श्राविका समुदाय के साथ की बातचीत या धर्मचर्चा में से उन्हें लगा कि धर्म सूत्रों का रटन या उनकी अनुषंगिक क्रियाएँ तो बहनें बहुत करती हैं; परन्तु ज्यादात्तर बहनें, कितने ही श्रावक भी, अर्थ से अज्ञात होने के कारण सूत्र बोलने के साथ-साथ ही भाव की अनुभूति नहीं कर पाते। ऐसे साधक भाव चूकने के कारण बहुत कुछ चूक जाते हैं। इसलिए साध्वीजी भगवंत ने बहुजन जिज्ञासुओं को ध्यान में रखकर सूत्रों के अर्थ को ग्रंथस्थ करवाने का निर्णय किया। उसके परिणाम स्वरूप जो प्रथम पुस्तक लिखी वह ‘सूत्र-संवेदना भाग-१' (गुजराती) थी। उसमें 'नमस्कार महामंत्र' से शुरु करके ‘सामाइय वयजुत्तो' तक के ग्यारह सूत्रों की बात की गई ।
विदुषी साध्वीश्रीजी की यह धर्म यात्रा फिर आगे बढ़ी है, जो हमारे लिए सौभाग्य की बात है। इस समय उन्होंने जो सूत्रों के अर्थ किए उनमें
चैत्यवंदन प्रधान है। इसमें 'वैयावच्चगराणं' सूत्र तक की बात करके उन्होंने उत्कृष्ट चैत्यवंदन को लिया है। क्रियाओं में चैत्यवंदन जैसी अन्य कोई श्रेष्ठ भाव क्रिया नहीं। चैत्यवंदन की रचना गणधर भगवंतों ने की है। वंदन किसे करें ? जिन्होंने इस विकट भवाटवी में से बाहर निकलने का मार्ग बताया, उन परमात्मा श्री जिनेश्वर देवों को भावपूर्वक वंदन करना है ।