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चैत्यवंदन के पीछे प्रमुख भाव उपकारक के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का तो होता ही है, लेकिन साथ-साथ तारक परमात्मा के गुणगान का भी होता है। हमारे परमात्मा अन्य धर्मों के परमात्मा की अपेक्षा विशिष्ट हैं क्योंकि वे कहीं ऊपर से अवतार लेकर नहीं आते। मूल में तो वे अपने जैसे ही होते हैं - कर्मों से लिप्त, परन्तु बाद में अपने अदम्य पुरुषार्थ से कषायों एवं कर्मों के साथ संग्राम करते हैं एवं उनको हराकर मोक्षमार्ग की सीढ़ी चढ़ कर अंत में लोक के अग्रभाग पर सिद्धशिला के ऊपर पहुँचकर अनंत आनंदमय अवस्था में शाश्वतकाल के लिए स्थित हो जाते हैं। तीर्थंकर परमात्माओं ने खुद विकट मोक्षमार्ग के ऊपर आगे चलकर चौदह गुणस्थानों के सीमा चिन्ह अंकित किए होते हैं जिससे पीछे आनेवालों की यात्रा सुविधापूर्ण रहे एवं उसे ध्यान में रखकर मोक्षमार्ग के प्रवासी कहीं
और न भटक जाएँ। __ अन्य धर्मों में अपने-अपने इष्ट देव या परमात्मा के प्रति नमस्कार होता है, परन्तु उसमें उनके प्रति शरणगति की भावना व्यक्त करने या उनकी कृपा पाने या फिर उनकी प्राप्ति करने अर्थात् कि उनके निकट बसने का भाव होता है; जब कि जैन धर्म के चैत्यवंदन में विशिष्ट भाव भरे होते हैं और वे परमात्मा के गुणों को प्राप्त करने के होते हैं; कारण यह है कि गुणप्राप्ति के बिना मोक्षमार्ग का आरोहण नहीं हो सकता। इसीलिए अपने चैत्यवंदन में सूत्र के अर्थ के साथ-साथ तीर्थंकर परमात्मा के गुणों का विशद् तरीके से वर्णन किया जाता है। अपने वंदन में मार्गदर्शक के प्रति कृतज्ञता के साथ-साथ उनके गुणों की प्राप्ति की बात रहती है। इस प्रकार अपना चैत्यवंदन अन्य धर्मों के वंदन-पूजन की अपेक्षा विशिष्ट बन जाता है।
अच्छी तरह से किया हुआ एक भी चैत्यवंदन आत्मा के ऊपर अनंत भवों से लगे कर्मों की निर्जरा करने में सक्षम होता है। भावपूर्वक चैत्यवंदन होने लगे तो संवर तो स्वयं ही सध जाता है। उस समय कर्मों का यदि कोई आश्रव होता है तो केवल शुभ कर्मों का एवं उसमें जब ये वंदन उत्कृष्ट