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जं किंचि सूत्र
विशेषार्थ :
जं किंचि नाम तित्थं सग्गे पायालि माणुसे लोए - स्वर्ग में, पाताल में और मनुष्य लोक में जो कोई तीर्थ हैं, (उन सब को मैं वंदन करता हूँ) ।
'तीर्यते अनेन इति तीर्थम्' जिससे तैरा जा सके अथवा जो तारें वे तीर्थ कहलाते हैं । वैसे तो कोई भी आत्मा अपने परिणाम (भाव) से ही संसार सागर को तैर सकती है, तो भी आत्मा को तैरानेवाले शुभ भाव कोई निमित्त प्राप्त करके उत्पन्न होते हैं । ऐसे सभी निमित्तों में श्रेष्ठ निमित्त तीर्थंकर परमात्मा हैं । तीर्थंकर परमात्मा की प्रतिमाएँ जहाँ स्थापित की गई हों, उनके कल्याणक जहाँ हुए हों अथवा परमात्मा साक्षात् स्वदेह से जहाँ विचरे हों, वे सभी क्षेत्र भी तीर्थ कहलाते हैं, क्योंकि ऐसी उत्तम आत्माओं के स्पर्श से वह भूमि पवित्र होती है, वहाँ जाने से, उन-उन परमात्मा के संस्मरण से सरलता से शुभभाव उत्पन्न होते हैं । ऐसे जो कोई तीर्थ स्वर्ग में, पाताल में और मनुष्यलोक में है, उन सभी को मैं वंदन करता हूँ।
स्वर्गलोक के तीर्थ : १२ देवलोक, ९ ग्रैवेयक, ५ अनुत्तर, ९ लोकांतिकादि वैमानिक देवों के आवास जहाँ है, उसे स्वर्गलोक कहते हैं, उनके सभी विमानों में जो जिनमंदिर है, वे सभी स्वर्गलोक के तीर्थ हैं ।
पाताललोक के तीर्थ : रत्नप्रभापृथ्वी के गर्भ में पाताल लोक है । उसमें भवनपति, व्यंतर, वाणव्यंतर के आवास हैं । उन सभी आवासों में जो शाश्वत जिनमंदिर हैं, वे और महाविदेह क्षेत्र के अधोग्राम में जहाँ-जहाँ अशाश्वत जिनमंदिर हैं, वे सभी पाताल लोक के तीर्थ हैं ।
मनुष्यलोक के तीर्थ : यहाँ मनुष्यलोक का अर्थ मात्र अढाई द्वीप ही नहीं, परन्तु समग्र तिर्यग्लोक है । तिर्यग्लोक में नंदीश्वरादि चौदहवें द्वीप तक जहाँ शाश्वत जिनमंदिर हैं और अन्यत्र जहाँ-जहाँ शाश्वत-अशाश्वत तीर्थस्थान हैं, वे सभी मनुष्य लोक के तीर्थ कहलाते हैं । 1. मूल में 'नाम' शब्द है, वह वाक्यालंकार के लिए एक अव्यय है । 2. तीर्थ के विशेष व्याख्या लोगस्स सूत्र में (सूत्र संवेदना भाग-१) दिया है ।