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________________ जगचिंतामणी सूत्र ४७ ४७ यह पद बोलते हुए सोचना चाहिए, 'प्रभु ! आप जगत् में तो सदा के लिए जयवंत हैं ही; परन्तु मेरे हृदय में आप अगर विजयवंत बनें तो मोह शत्रु पर विजय प्राप्त करना, मेरे लिए आसान बन जाएगा । ऊपर बताए गए तमाम विशेषणों से युक्त भगवान को देखने से उनके प्रति भक्ति-बहुमान की वृद्धि होती है । ‘ऐसे परमात्मा मेरे साथ हैं ।' ऐसी बुद्धि होने से सन्मार्ग में प्रवृत्त होने का उत्साह बढ़ता है, वीर्य की वृद्धि होती है और उसी से आत्मा का हित होता है । जिसके प्रति बहुमान का परिणाम होता है उनके जन्मक्षेत्र, शरीर और संख्या आदि विषयक जिज्ञासा भी उत्पन्न होती है । इसलिए इन चौबीस भगवंतों का जन्मक्षेत्र, शरीर और संख्या आदि अब बताते हैं - कम्मभूमिहिं कम्मभूमिहिं - कर्मभूमियों में इस पद से भगवान का जन्मक्षेत्र बताया गया है । जिस क्षेत्र में असि, मसि और कृषि का व्यवहार चलता है, उसे कर्मभूमि कहते हैं । ऐसी कर्मभूमि १५ हैं। ५ भरत, ५ ऐरवत और ५ महाविदेह । यहाँ असि, मसि और कृषि का व्यवहार चलने के कारण, कर्मबंध के निमित्त भी यहाँ ज्यादा मिलते हैं और कर्म का क्षय करने के लिए संयम आदि की सुंदर सामग्री भी मिलती है । तदुपरांत मोक्ष की प्राप्ति भी इस क्षेत्र में ही होती है, इसलिए जिनेश्वर भगवंतों का जन्म भी इस कर्मभूमि में ही होता है । पढमसंघयणि - वज्रऋषभनाराच नाम के प्रथम संघयणवाले । संघयण अर्थात शरीर का बंध, हड्डियो की मजबूती । शास्त्र में संघयण' छः प्रकार के बताये हैं। उसमें प्रथम वज्रऋषभनाराच संघयण है । 3. असि - तलवार आदि शस्त्र का व्यवहार, मसि-स्याही आदि लेखन सामग्री का उपयोग तथा कृषि खेतीबारी, वाणिज्य, व्यापार आदि 4. संघयण याने हड्डीओं की रचना । शास्त्र में छ: तरीके ४ की रचना बताई है । छ संघयण : १. वज्रऋषभनाराच, २ ऋषभनाराच, ३. नाराच, ४. अर्धनाराच, ५. कीलिका, ६. छेवटुं।
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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