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सूत्र संवेदना - २
अनेक ग्रन्थों की रचना करते हैं, उन्हें शास्त्र कहते हैं । अनेक दृष्टिकोण से पदार्थ का मूल्यांकन करनेवाले इन शास्त्रों में कभी भी अधूरापन देखने को नहीं मिलता। इन शास्त्रों में कहीं स्खलना का भी सवाल नहीं होता । 'हाँ' संयोगों की विषमता के कारण या विस्मृति के कारण आज बहुत से शास्त्र नष्ट हो गए हैं । इसलिए आज कहीं भी त्रुटि दिखें, तो वह त्रुटि भी शास्त्र की नहीं, बल्कि शास्त्र के संरक्षण के अभाव की है । बहुत से शास्त्रों के नष्ट हो जाने के बावजूद आज भी इतने शास्त्र तो हैं ही कि, उन शास्त्रों के माध्यम से साधक आत्मसिद्धि के मार्ग पर अविरत प्रयाण कर सकता है।
भगवान के वचन जिनके हृदय में संस्थापित हुए हैं, वे साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका चतुर्विध संघ कहलाते हैं । ये चतुर्विध संघ भरत, ऐरवत क्षेत्र की अपेक्षा सदा विद्यमान नहीं होता, परन्तु महाविदेह क्षेत्र की अपेक्षा से सदा विद्यमान है, इसी कारण भगवान का शासन अखंडित कहलाता है । यह पद बोलते हुए ऐसा संकल्प करना चाहिए, 'भगवान का शासन तो इस जगत् में हमेशा विद्यमान है । मात्र इस शासन के प्रति समर्पित होने की जरूरत है । अगर मैं इस शासन को संपूर्ण समर्पित हो जाऊँ, तो मेरा श्रेय निश्चित है । इसलिए अप्रतिहत शासनवाले परमात्मा का ध्यान करके में भी इस शासन को समर्पित होने की शक्ति प्रगट करूँ ।' चउवीसंपि जिणवर जयंतु ! - (अष्टापदगिरि ऊपर बिराजमान) चौबीस जिनेश्वरों की जय हो !
गुणसंपन्न चौबीसों जिनेश्वर भगवंतो सदा के लिए जगत् में जयवंत रहें अथवा वे मेरे हत्यकमल में हमेशा विद्यमान रहें ! चंदन के वन में जैसे मोर की एक षड्ज़ ध्वनि सैंकड़ों साँपों को बिल में पलायन करा देती है, वैसे हृदय मंदिर में भगवान की उपस्थिति मात्र भी रागादि अनेक दोषों रूप साँपों को पलायन करवा देती है ।
हा !