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जगचिंतामणी सूत्र ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्म आत्मा के ज्ञानादि गुणों को आवृत करते हैं । भगवान पहले चार घातिकर्म का नाश करके केवलंज्ञान प्राप्त करते हैं
और बाद में चार अघातिकर्म का भी नाश करके मोक्ष में जाते हैं । इस प्रकार परमात्मा आठ कर्म का नाश करनेवाले हैं, इसीलिए यहाँ भगवान को आठ कर्म का विनाशक कहा है ।
यह पद बोलते हुए परमात्मा की सिद्ध अवस्था को स्मृति में लाना चाहिए। आत्मा जब सभी कर्मों से मुक्त होती है, तभी वह सिद्ध होती है
और आत्मा के अनंत आनंद को प्राप्त कर सकती है । इस स्वरूप में परमात्मा को याद करने से मुझे भी आठ कर्म का विनाश करके, शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करके अनंत आनंद को प्राप्त करना है, ऐसे भाव की वृद्धि होती है, जिससे मार्ग में उत्साह बढ़ता है, उससे मार्ग पर चलने के लिए वीर्य की वृद्धि भी होने लगती है, जो महानिर्जरा का कारण बनती है ।
अप्पडिहय-सासण ! - अखंडित शासनवाले । । प्रभु ने जिस धर्म शासन की स्थापना की है, वह किसीसे भी खंडित नहीं होता याने कि उस मत - में उस दर्शन में अब तक कोई कैसी भी भूल नहीं निकाल पाया है। अतः यह शासन अखंडित, अस्खलित या अविसंवादी है, जिनका शासन विरोध रहित है । शासन शब्द का प्रयोग तीन अर्थ में होता है, उपदेश, शास्त्र और संघ । अतः भगवान का उपदेश, भगवान के शास्त्र या भगवान का संघ अखंडित है, उसमें कभी स्खलना या विसंवाद देखने को नहीं मिलता और उसका कभी नाश नहीं होता ।।
अरिहंत परमात्मा का आचार ऐसा है कि - जब तक वे सर्वज्ञ नहीं बनते, तब तक उपदेश नहीं देते । जब वे स्वयं केवलज्ञान प्राप्त करते हैं, तभी वे केवलज्ञान से सभी पदार्थ का यथार्थ स्वरूप देखकर उसकी प्ररुपणा करते हैं। इसलिए उनकी देशना के प्रवाह को कोई प्रतिवादी कुतर्क से खंडित नहीं कर पाता ।
परमात्मा का उपदेश प्राप्त करके गणधर भगवंत द्वादशांगी की रचना करते हैं और उसके बाद सुविहित गीतार्थ भी इस द्वादशांगी के आधार पर