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________________ ४४ सूत्र संवेदना - २ “इस जगत् में सुख की चिंता करनेवाले तो मिलते हैं, परन्तु आत्म-हित की चिंता करनेवाला कौन है ? शायद पुण्योदय से हितचिंता करनेवाला कोई मिल भी जाए, तो भी वह जगत् के भावों को इस तरह जान भी नहीं सकता और देख भी नहीं सकता, इसलिए वह भगवान के जैसा हित नहीं कर सकता । जगत् में एकमात्र भगवान ही ऐसे हैं कि जो सर्वज्ञ- वीतराग होने से अज्ञान या राग-द्वेष की छाया से मुक्त रहकर जगत् के भाव जैसे हैं, वैसे जानते हैं, देखते हैं और किसी का अहित न हो इस तरह उन भावों में से निकलने का मार्ग भी बताते हैं । ज्ञान की निर्मलता और पूर्णता के बिना मार्ग बताने का ऐसा कार्य कोई और नहीं कर सकता ।" इस प्रकार परमात्मा की विचक्षणता का विचार करके, परमात्म स्वरूप को प्राप्त करनेवाले चौबीसों भगवान को इन शब्दों के द्वारा स्मृति में लाकर, ऐसे भगवान समग्र विश्व में और मेरी आत्मा के एक-एक प्रदेश में जयवंत रहें अर्थात् यह स्वरूप सदा स्मृति में रहे ऐसा भाव ये शब्द बोलते हुए रखना है। अट्ठावय- संठविअ रूव ! अष्टापद पर्वत के ऊपर जिनकी प्रतिमाएँ संस्थापित की गई हैं वैसे (चौबीश तीर्थंकर) - भरत महाराज ने इस अवसर्पिणी में होने वाले चौबीसों भगवान के शरीर की ऊँचाई, चौड़ाई और वर्ण के प्रमाण में प्रतिमा बनवाकर अष्टापद पर्वत के ऊपर बिराजमान की हैं । चरमशरीरी - तद्भव मोक्षगामी आत्माएँ ही अपनी लब्धि से इस पर्वत के ऊपर रहीं प्रतिमाओं की यात्रा कर सकती हैं। ये शब्द बोलते हुए अष्टापद पर्वत के ऊपर प्रतिष्ठित उस प्रकार की ऊँचाई आदि वाली प्रतिमाओं को और प्रतिमा में रहनेवाले परमात्म भाव को याद करके वंदना करनी है । कम्मट्ठ-विणासण ! - आठ कर्म का नाश करनेवाले ।
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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