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________________ जगचिंतामणी सूत्र . ४३ जगभाव-विअक्खण । - हे जगत् के भावों को जाननेवाले, देखनेवाले और उन सबको व्यक्त करने में विचक्षण !. भगवान जगत् के भावों को जानने में विचक्षण हैं। परमात्मा सर्वज्ञ हैं, इसलिए वे जगद्वर्ती जड़-चेतन सभी पदार्थों के सभी पर्यायों (भावों) को जानते हैं और योग्य जीवों के आगे उसे प्रकाशित करते हैं, इसलिए भगवान के लिए 'जग-भाव-विचक्षण' ऐसा विशेषण यथार्थ है ।। भगवान जगत् के भावों को मात्र ऊपरी दृष्टि से नहीं देखते, वे भावों की गहराई को देख सकते हैं । पहली नज़र से देखने पर संसारी जीवों को जो परपदार्थ सुख का कारण लगते हैं, उन पौद्गलिक भावों की वास्तविकता से भगवान उन्हें सावधान करते हैं । सर्वज्ञ-सर्वदर्शी परमात्मा ने बताया है कि, 'जगत् के सब पदार्थ और भाव जिस स्वरूप में रहे हैं, वैसे ही हैं । उनमें अच्छे-बुरे या इष्ट-अनिष्ट का कोई परिणाम है ही नहीं । ये अच्छे-बुरे परिणाम तो स्वबुद्धि कल्पित हैं, इसलिए अगर तुम्हें आत्महित करना हो, तो उन पदार्थों के साथ तुम्हें किस प्रकार बर्ताव करना चाहिए, तुम्हारा औचित्य कहाँ, कितना है ? तुम्हारे लिए उनके साथ कितना संबंध उपकारक है, वह सब मेरे वचनानुसार जानकर तुम्हें प्रवृत्ति करनी चाहिए, जिससे तुम्हारी आत्मा का अहित न हो ! तुम कभी दुःखी न हो ! और अंत में सर्व दुःख से मुक्त भी हो सको। महोपाध्याय श्री विनयविजयजी म.सा. परमात्मा की वाणी के मर्म को बताते हुए कहते हैं कि 'त्वयि निष्प्रणये पुद्गलनिचये वहसि मुधा ममतातापम्' ये पुद्गल का समूह तुझ पर लेश मात्र भी प्रेम नहीं रखता, तुम्हारे प्रति अत्यंत निष्प्रेम वाले इन पुद्गलों में तुम किसलिए ममता रखते हो ? और तुम्हारी इच्छा के अनुसार उसकी प्राप्ति में सुखी और इच्छा के विरुद्ध की प्राप्ति से दुःखी क्यों होते हो ? यह पद बोलते हुए सोचना चाहिए कि,
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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