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________________ सूत्र संवेदना - २ कमाई का साधन मानता है, वैसे ही साधक यह आपत्ति ही मेरे सुख का साधन है, ऐसा मानते हुए आपत्ति का सहज स्वीकार कर, उसमें भी प्रसन्न रहता है । जो भगवान को बांधव तुल्य मानकर उनके प्रति अहोभाव, आदरभाव और प्रेमभाव रखते हैं, उनके वचन को सतत हृदय में धारण करते हैं और उनके वचनानुसार यथासम्भव जीवन को बदलने का प्रयत्न करते हैं, उनके लिए ऐसे विषमकाल में भी भगवान अवश्य एक बंधु तुल्य बनते हैं । यह पद बोलते वक्त सोचना चाहिए, "मेरे परम पुण्योदय से किसी को न मिले, वैसे बंधु मुझे मिले हैं अब कैसी भी आपत्ति आए मुझे कोई चिंता नहीं । सर्व आपत्तियों में से पार उतारनेवाले प्रभु विश्वबंधु मेरे साथ हैं ।” जग-सत्थवाह ! - हे जगत के सार्थवाह ! सार्थ याने इष्ट स्थान पर पहुँचने की इच्छावाले मुसाफिरों का एक समूह। इस समूह का जो ध्यान रखें और उसे इष्ट स्थान पर पहुँचाने का पुरुषार्थ करें, वैसे उसके नायक या अगुआ को सार्थवाह कहते हैं । सार्थवाह जैसे अपने सार्थ में जुड़े हुए तमाम व्यक्तियों का रक्षण करके, उनकी आवश्यकताओं की पूर्तिकर उन सभी को इष्ट स्थान पर पहुँचाता है, वैसे ही भगवान भी अपने शासन रूपी सार्थ में जुड़े तमाम व्यक्तियों को मोक्षमार्ग में जरूरी बाह्य-अभ्यन्तर सर्व सामग्री देकर अंत में मोक्ष तक पहुँचाते हैं । इस तरह, जैनशासन को पाने वाले तमाम आत्माओं के लिए भगवान भी सार्थवाह तुल्य हैं । यह पद बोलते हुए साधक को सोचना चाहिए कि, “सार्थवाह तुल्य इस भगवान के शासन में मुझे भाव से प्रवेश करना है । अपर प्रवेश हो जाए तो जैसे सार्थवाह की सहायता से भयंकर जंगल को पार करके इष्ट स्थान पर पहुँचा जा सकता है, वैसे ही इस भयानक भव-अटवी को पार कर मोक्ष में पहुँचा जा सकता है ।"
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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