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सूत्र संवेदना - २
'इच्छाकारेण' इस शब्द के प्रयोग से शिष्य गुरु से कहता है - "आप अनिच्छा से नहीं, परंतु आपकी इच्छा हो तो ही मुझे आज्ञा दें ।” ऐसे उच्चारण से दशविध सामाचारी में से प्रथम 'इच्छाकार' सामाचारी का पालन भी होता है ।
ये शब्द सुनकर उत्तम क्रिया के योग्य समय को जानकर गुरु भगवंत भी शिष्य के भावोल्लास की वृद्धि के लिए कहते हैं -
(करेह) - तुम चैत्यवंदन करो ।
यह शब्द सुनकर अपने इस कार्य में गुरु भगवंत की संमति है ही, ऐसा मानकर, आनंदित होकर विनयसंपन्न शिष्य चैत्यवंदन का प्रारंभ करते हुए कहता है -
इच्छं - मैं चाहता हूँ। 'इच्छं' कहकर शिष्य ऐसा बताता है कि भगवंत ! मैं आपकी आज्ञानुसार ही करना चाहता हूँ ।
इच्छं - यह शब्द परम विनय का सूचक है । 'तुम चैत्यवंदन करो' ऐसी गुरु भगवंत की आज्ञा मिलने के बाद भी आज्ञा के प्रति आदरवाला शिष्य इस आज्ञा को मौनपूर्वक स्वीकार नहीं करता, परंतु विनयपूर्वक कहता है, 'आप जो कहते हैं मैं वहीं करने की इच्छा रखता हूँ ।' इस प्रकार आज्ञा का स्वीकार करता है । जगचिंतामणि ! - हे जगत में चिंतामणि रत्न के समान ! चौबीस जिनेश्वर का विशेषण वाचक यह पद संबोधन बहुवचन में है और उसका अन्वर्य चळवीसं पि जिणवर जयंतु' के साथ जोड़ना है । इसके द्वारा जगत् में चिंतामणि रत्न समान वगैरह विशेषणों वाले चौबीस जिनेश्वरों, आपकी जय हो, ऐसा अर्थ प्राप्त होता है ।